Book Title: Samipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Author(s): Pravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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जीव में सत् और चित् तत्त्व का आविर्भाव होता है और आनन्द तत्त्व का तिरोभाव है । आनन्दं तत्त्व को तिरोभाव होते हुए भी वह अन्तर्यामी के रूप में प्रत्येक जीव के अन्तरतम में निवास करता है जैसे स्फुल्लिंग (चिनगारी) में अग्नि निहित है ।
"सृष्टयादौ निर्गताः सर्वे निराकारास्तदिच्छया । विस्फुलिंगा इवाग्नेस्तु सदंशेन जड़ा अपि" ॥ (त. शा., 27.) "आनन्दांश आन्नदाश स्वरूपेण सर्वान्तर्यामि रूपिणः" || (त. शा., 28.) "सच्चिदानन्दरूपेषु पूर्णा" (वही 29)
"यथाग्नेः क्षुद्राः विस्फुलिंगाः व्युच्चरन्ति' (बृ. उप., 2-1-27) ब्रह्म सब जीवों में अन्तयाँमी के रूप में निवास करता है फिर भी उमका आनन्दांश को एवं उनके फलों से प्रभावित नहीं होता । ब्रह्म सत्चिदानन्द होने के कारण अनन्त एव सर्वव्यापी है ।
शुद्धाद्वैत दर्शन में श्रीकृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम पर ब्रह्म माना है। ____ "सच्चिदानन्दरूपेषु पूर्वयोरन्यलीनता ॥” (वही, 29)
ब्रह्म सृष्टि संरचना क्यों करता है: इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह तो ब्रह्म का स्वभाव ही है जिसके पीछे कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। "न प्रयोजनत्तवात्" (ब. सू., 2-1-32) सृष्टि तों ब्रह्म की स्वभावगत संकल्प या इच्छा ही है। जैसे एक कलाकार अपनी सर्जना से प्रेरित होक कलाकृति का अपने आनन्द के लिए निर्माण करता है वैसे परब्रह्म सूष्टि संरचना करता है। "लोक वात लीला कैवल्यम्” (ब. स. 2-1-32) पर ब्रह्म स्व आनन्द के लिये ही सृजन करता है। इसका वृहद आरण्यक उपनिषद में भी उल्लेख हुआ है।
"स व नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते. स द्वितीय मैच्छत', (1-4-3) वह एकाकी रमणं नहीं कर सकता था इसलिए अनेक होने की इच्छा प्रकट हुई । यही सृष्टि है । इस प्रकार सुष्टि और सुष्टा एक हो जाते हैं, क्योंकि सृष्टा ही स्वयं सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त होता है।
अहं वाव सृष्टिरस्मि, अहं हीदं सर्वमलाक्षमि ततः सृष्टिरभवत्" (ब.सू.अणु.भा., 1-4-5) "अज, अविनाशी, अमर प्रभु जनपै मरै न सोई नश्वत करत कला सकल, बूझे विरला कोइ" (सू.सा., पृ. 126) "खेवनहार न खेवह मेरे अब मो नाष अरी,
सूरदास प्रभु तब चरनन की आस लागि उबरी' (स.सा., 60) अतः समग्र शरणागति से ही परब्रह्म पुरुषोत्तम का साक्षात्कार संभव है ।
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार : श्री कृष्ण गीता में उद्घोष करते हैं कि भगवान का मनुष्य के रूप में अवतार लेने का हेतु धर्म का संस्थापन है और दुष्कृत्य करनेवालों का विनाश (गी., 4/7) पंचरात्र के चतुर्ग्रह मत के अनुरूप वल्लभाचार्य श्रीमद् भागवत को आधार बनाकर अवतारवाद की स्थापना करते हैं। श्रीमद भागवत में चतुष्यूह मत का सीधा उल्लेख नहीं है । भगवान का अवतार चार प्रकार से सम्पन्न होता है। सूरदास एवं शुद्धाद्वैत ]
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