Book Title: Samipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Author(s): Pravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
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शुद्धाद्वैत में ब्रह्म : जीव, जगत एवं समस्त सृष्टि ब्रह्म ही है । सब क्रियाओं का वही संचालक है क्योंकि सब कुछ उसी में निहित है । वही देश, काल कारण एवं कर्ता है क्योंकि सब वही है ।
का स्रोत
वही परमेश्वर सबका स्वामी एवं सब में वास करते हुए पूर्णं दीप्ति के साथ दैदीप्यमान है । मानव मन उसकी थाह लेने में अक्षम है । सारी विचार धाराएँ उसके प्रभुत्व की ओर इन्यित मात्र कर सकती हैं उसको ग्रहण नहीं कर पातीं । ब्रह्म के अनेक अवतार है वह नित्य परिवर्तित होता सभी का अपरिवर्तित है। सभी विरोधाभासों का समूह होते हुए भी उसमें सभी का समीकरण निहित है । वह अनन्त अनामय एवं तर्कातीत है । इसलिए मानव उसे तर्क से नहीं जान सकता । वह विरुद्ध धर्मो का आश्रय है ।
"अनन्तमूर्ति तद् ब्रह्म कूटस्थं चलमेव च । विरुद्धं सर्व धर्माणामाश्रय युक्त्यगोचरम् ॥ (7)
इन विरुद्ध धर्मो के मध्य उसका वास्तविक स्वरूप भास्वर है । समस्त सृष्टि का सृष्टा होने पर भी वह अकर्ता है क्योंकि सारी सृष्टि उसका अंश है । वह स्वयं ही स्वेच्छाया सृष्टि बना है । इस प्रकार सृष्टा और सृष्टि एक ही है । जहाँ समस्त द्वैत, अद्वैत में समा जाता है यही शुद्धाद्वैत है ।
" स एव हि जगत् कर्ता तथापि सगुणो ना हि ।
गुणाभिमानिनो ये हि तद्देवाः सगुणाः स्मृताः ॥ ( वही, 77)
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सूरदास ब्रह्म के निर्गुण रूप को स्वीकार करते हैं लेकिन निराकार रूप सीमित मन एवं वाणी द्वारा अगभ्य होने के कारण वे सगुण ब्रह्म की ही उपासना करते है ।
" मन वाणी को अगम अगोचर, सो जाने सो पावे
रूप रेख गुन जाति जुगति विनु निरालम्ब कित धावै
सब विधि अगम विचारहिं ताते सूर सगुन पद गावै ।" (सू. सा., 125 )
ब्रह्म का कोई प्राकृत आकार या स्वरूप नहीं है कोई गुण । इसलिए जितने ही रूा हम देखते हैं वे सब उसके आन्तरिक आनन्द की भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ है । वल्लभाचार्य कहते हैं कि ब्रह्म के सभी गुण अप्राकृत है अथवा आध्यात्मिक हैं उसके आनन्द निर्मित है । वह सर्व गुण सम्पन्न गुणातीत एवं भेद रहित है ।
देह और अवयवों का विस्तार अनन्त है और सब के सब
"निर्दोषपूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रः से निश्चेतनात्मकं शरीरं गुणैश्च हीनः ।
आनन्द मात्र करपादमुखोदरादिः
सर्वत्र च त्रिविधमेदविवर्जितात्मा ॥ (त. शा., 44 )
ब्रह्म के विराट स्वरूप का वर्णन करते हुए वल्लभाचार्य लिखते है :
"आकाशवद् व्यापक' हि ब्रह्म मायांशवेष्टितम् ।
सर्वतः पाणि पादान्त सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ॥ (त. शा. 25)
सूरदास एवं शुद्धाद्वैत]
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