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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शुद्धाद्वैत में ब्रह्म : जीव, जगत एवं समस्त सृष्टि ब्रह्म ही है । सब क्रियाओं का वही संचालक है क्योंकि सब कुछ उसी में निहित है । वही देश, काल कारण एवं कर्ता है क्योंकि सब वही है । का स्रोत वही परमेश्वर सबका स्वामी एवं सब में वास करते हुए पूर्णं दीप्ति के साथ दैदीप्यमान है । मानव मन उसकी थाह लेने में अक्षम है । सारी विचार धाराएँ उसके प्रभुत्व की ओर इन्यित मात्र कर सकती हैं उसको ग्रहण नहीं कर पातीं । ब्रह्म के अनेक अवतार है वह नित्य परिवर्तित होता सभी का अपरिवर्तित है। सभी विरोधाभासों का समूह होते हुए भी उसमें सभी का समीकरण निहित है । वह अनन्त अनामय एवं तर्कातीत है । इसलिए मानव उसे तर्क से नहीं जान सकता । वह विरुद्ध धर्मो का आश्रय है । "अनन्तमूर्ति तद् ब्रह्म कूटस्थं चलमेव च । विरुद्धं सर्व धर्माणामाश्रय युक्त्यगोचरम् ॥ (7) इन विरुद्ध धर्मो के मध्य उसका वास्तविक स्वरूप भास्वर है । समस्त सृष्टि का सृष्टा होने पर भी वह अकर्ता है क्योंकि सारी सृष्टि उसका अंश है । वह स्वयं ही स्वेच्छाया सृष्टि बना है । इस प्रकार सृष्टा और सृष्टि एक ही है । जहाँ समस्त द्वैत, अद्वैत में समा जाता है यही शुद्धाद्वैत है । " स एव हि जगत् कर्ता तथापि सगुणो ना हि । गुणाभिमानिनो ये हि तद्देवाः सगुणाः स्मृताः ॥ ( वही, 77) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरदास ब्रह्म के निर्गुण रूप को स्वीकार करते हैं लेकिन निराकार रूप सीमित मन एवं वाणी द्वारा अगभ्य होने के कारण वे सगुण ब्रह्म की ही उपासना करते है । " मन वाणी को अगम अगोचर, सो जाने सो पावे रूप रेख गुन जाति जुगति विनु निरालम्ब कित धावै सब विधि अगम विचारहिं ताते सूर सगुन पद गावै ।" (सू. सा., 125 ) ब्रह्म का कोई प्राकृत आकार या स्वरूप नहीं है कोई गुण । इसलिए जितने ही रूा हम देखते हैं वे सब उसके आन्तरिक आनन्द की भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ है । वल्लभाचार्य कहते हैं कि ब्रह्म के सभी गुण अप्राकृत है अथवा आध्यात्मिक हैं उसके आनन्द निर्मित है । वह सर्व गुण सम्पन्न गुणातीत एवं भेद रहित है । देह और अवयवों का विस्तार अनन्त है और सब के सब "निर्दोषपूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रः से निश्चेतनात्मकं शरीरं गुणैश्च हीनः । आनन्द मात्र करपादमुखोदरादिः सर्वत्र च त्रिविधमेदविवर्जितात्मा ॥ (त. शा., 44 ) ब्रह्म के विराट स्वरूप का वर्णन करते हुए वल्लभाचार्य लिखते है : "आकाशवद् व्यापक' हि ब्रह्म मायांशवेष्टितम् । सर्वतः पाणि पादान्त सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ॥ (त. शा. 25) सूरदास एवं शुद्धाद्वैत] For Private and Personal Use Only [113
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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