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"सब तजी भजिए नंदकुमार ।
और भजे ते काम सरै नाहि मिटे न भव-जंजार (सू. सा. पृ. 23 )
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किन्तु यह तभी संभव हो सकता है जब हमारा जीवन पवित्र एवं विकार रहित हो जाता है । जो काम, क्रोध, लोभ, मोह से ग्रस्त है उनका हरिभक्ति में कोई स्थान नहीं है । जिनका मन सांसारिक भोग वासनाओं में उलझा हुआ है उनका भगवद् भक्ति में प्रवेश ही नहीं है ।
वल्लभाचार्य कहते हैं " विषयाक्रान्तदेहानां नावेशः सर्वथा हरे" (स. नि. 2,6) इसी बात को वह पुनः सुबोधिनी में दोहरा देते हैं
"कामादिना " शिथिलित्वे भक्तिर्नोत्पत्स्यते (सु. भा. )
इसी भाव को सूरदास कहते हैं।
"मन रे, माधो से करि प्रीति ।
काम-क्रोध-मद- लोभ तू, छोडि सर्वै विपरीति । (सू. सा., पृ.
126 )
सूरसागर विनय के पदों से प्रारम्भ होता है, जो भगवद् अनुग्रह प्राप्त करने को प्रार्थना का स्वरूप है । सूरदास कहते हैं कि भगवद् नाम अनुकम्पा उस नौका की तरह है जो हमें तार देती है ।
सूर प्रभु को सुजस गावत, नाम नौका तरन (सू. सा., 1-202)
जब भक्ति द्वारा मन पवित्र हो जाता है तभो शुद्धाद्वैत के सूक्ष्म चितन व दर्शन को हम अनुभूत कर सकते हैं एवं तदनुरूप जीवन को बना सकते हैं कवि वई झवर्थ के शब्दों में हम सूरदास के काव्य के बारे में यह कह सकते हैं कि "पवित्रता, गुणग्राह्यता, ज्ञान एवं आनन्द उनके जीवन में संगीत व काव्य के रूप में अवतरित हुए हैं ।" Pure passions, virtue, knowledge and delight, The holy life of music and of verse. (Prelude, 1.33)
शुद्धाद्वैत दर्शन को "ब्रह्मवाद" या "अविकृत परिणामवाद” कहते है । इसका वर्णन करते हुए श्री वल्लभाचार्य लिखते हैं कि इसमें माया का संबंध "प्रतीति" से नहीं है ।
"माया संबन्धरहितं शुद्ध मित्युच्यते"
वे माया को ब्रह्म की अभिव्यक्ति-शक्ति मानते हैं । अतः वह प्रतीति नहीं अपितु वास्तविक है इसलिए वे ब्रह्म को शुद्धाद्वैत कहते हैं । इसे ब्रह्मवाद इसलिए मानते हैं कि आत्मा एवं सारी सृष्टि ब्रह्म ही है केवल ब्रह्म । इसे "अविकृत परिणामवाद" भी कहते हैं क्योंकि जब अनन्त ब्रह्म अपने आपको जगत् एवं जीव के रूप में अभिव्यक्ति करता है तो उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता जैसे स्वर्ण से नाना प्रकार के आभूषण बना लेने पर भी स्वर्ण में कोई परिवर्तन नहीं होता ।
शुद्धाद्वैत दर्शन चार महान ग्रन्थों पर आधारित है । वल्लभाचार्य के पूर्ववर्ती आचार्यों ने तीन ग्रन्थों को आधार बनाया था - बेद, ब्रह्मसूत्र एवं गीता, जिन्हें वे प्रस्थानत्रयी कहते थे । वल्लभाचार्य ने इसमें श्रीमद् भागवत को और जोड़ दिया और उन्होंने इन्हें “ प्रस्थान चतुष्टयी" नाम से संबोधित किया ।
"वेदा श्री कृष्ण वाक्यानि व्यास सूत्राणि चैव हि ।
समाधिभाषा व्यासस्य प्रमाणं तच्चतुष्टयम् ।। (ता. शा. प्र. 7)
सूरदास ने अपने चिन्तन व भावों को मुख्यः भागवत् पर आधारित किया है । कहीं कहीं इनके पदों में वेद, उपनिषद्, गीता एवं ब्रह्मसूत्र की अनुगूँज भी उठती है लेकिन उनकी अभिव्यक्ति सर्वथा मौलिक एवं रसमयी है ।
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[ Samipya : April, 291 March, 1992
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