SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरदास एवं शुद्धाद्वैत जयकिशनदास सादानी* सूरदास का काम्य उदात्त आध्यात्मिक विचारों का समवेत संगीत है जिसमें भक्ति एवं भगवद् शरणागति आनन्द में ऐसे निमग्न हो जाते हैं मानों भक्ति, भाव-समाधि की विलक्षण संगीतात्मक शब्दावली में व्यक्त हो उठी हों। सूरसागर सूरदास के पदों का विराट काम्य संग्रह है । यह तो दिव्य आनन्द का लहराता हुभा समुद्र है जिसमें विभिन्न भावों एवं विचारों की धाराएँ, दर्शन एवं ज्ञान की तरंगों में घुल-मिल कर, भगवान श्री कृष्णरूपी महोदधि में एकाकार हो जाती है । सूरसागर रस-सिन्धु है जिसमें श्री वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत दर्शन निरंतर तरंगायित होता रहता है। हमारे आधुनिक कवि जगदीश गुप्त कहते हैं "सागर सूर तो एसो रच्यो । विरंचि को सागर सीप सो लागे।" सूरदास व्रजभाषा के जनक माने जाते हैं, किन्तु यह सबसे आश्चर्य की बात है कि भाषा के इस उषाकाल में वे मध्याह्न सूर्य की तरह पूर्ण गरिमा के साथ देदीप्यमान हैं। उनका काव्य शुद्धाद्वैत के रसात्मक भाव से अभिभूत हैं एवं भगवद् अनुग्रह के सिद्धांत को रसास्मक, पदों में प्रतिपादित करता है। भगवान की सृष्टि-संरचना ही अपने आप में एक विराट "अनुग्रह" है, पोषणम् तद अनुग्रहम् । (श्रीमद्भागवत, 2-10-4)। इसलिए भगवत् अनुग्रह प्राप्ति करना जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। पुष्टिमार्गों अनुग्रहैक साध्यः । (अणु. 4-4-9); इसे प्राप्त करने के लिए विनम्र प्रगस करना चाहिए । दैन्य भाव से किया हुआ प्रयत्न अपने आपमें एक उपलब्धि है जो भगवद् अनुग्रह को अपनी ओर आकर्षित करता है । भगवद् अनुग्रह वह दिव्य शक्ति है जो मनुष्य को विपन्नता से मुक्त कर देती है। भत्यंत विनम्रभाव से सरदास भगवद कृपा की विलक्षणता का वर्णन मंगलाचरण में ही कर देते हैं। "चरण कमल बन्दौ हरि राई । जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे को सब कुछ दरसाई ॥ बहिरौ सुनै, गूंग पूनि बोले, रंक चले सिर छत्र धराई । सूरदास स्वामी करुणामय, बार बार बंदौ तिहि पाई ॥ (सू. साहब) भगवद अनुग्रह को मनुष्य कैसे प्राप्त कर सकता है ? भगवान श्री कृष्ण के लिए अनन्य भाव से प्रेम जिससे हमारा सारा जीवन उनकी उनकी सेवा ही बन जाय और हमारा हर काम उनके चरणों में निवेदित हो जाय एवं सभी कार्यों द्वारा हम सदा श्री कृष्ण का ही भजन करें । “सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो ब्रजाधिपः (चतु, प्रलोकी)। इस प्रकार निरन्तर एकाग्र चित्त से की हुई भक्ति से अनुग्रह सहज प्राप्त हो जाता है। * सम्पादक, भारतीय भाषा परिषद, कलकत्ता सूरदास एवं शुद्धाद्वैत] [ 111 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy