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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इसी सिद्धांत को सुरदास पद में गाते हैं । निरखि स्थाम नैननि स्वरूप । रह्यो घट-घट व्यापि खोई ज्योति रूप अनूप चरन सप्त पत्ताल जाके, सीस है आकाश सूर-चन्द्र-नक्षत्र पायक सर्व ताम्र प्रकाश ॥ (सू. सा, पृ. 123 ) इस प्रकार ब्रह्म अपनी परम आध्यात्मिक शक्ति द्वारा असीम होते हुए भी ससीम के रूप में अभिव्यक्त होता है और समस्त सृष्टि का स्रोत बन जाता है। इस प्रक्रिया को भाचार्य आविर्भाव प्रकट करना और तिरोभाव-विलीन करना चाहते हैं । इस विलक्षण शक्ति या माया द्वारा ब्रह्म सारी सृष्टि की संरचना करता है और उसे पुनः अपने में ही विलीन करता है। यह सारी प्रक्रिया या लीला ना में ही निष्पन्न होती हैं क्योंकि वास्तव में उसके सिवाय अन्य कोई है दी नहीं "कोऽयम् अद्वितीयम्” इस प्रकार समस्त संसृति का कारण अझ दी है। सूरदास इसी भाव को अपने पद द्वारा व्यक्त करते हैं । “पहिले हो ही हो तब एक अमल, अकल, अज, मेद विवर्जित सुन विधि विभूल विवेक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सो हो एक अनेक भांति करि सोभित नाना भेष ता पछि इन गुन गिनए तै हौं रहि हौ अवसेष” " प्रथम ज्ञान, विज्ञान द्वितीय मत तृतीय भक्ति को भाव सूरदास सोई समष्टि करि व्यष्टि दृष्टि नभलाव (सू. सा., पृ. 27 ) सृष्टि संरचना :- वल्लभाचार्य की दृष्टि में सृष्टि का कोई नव निर्माण नहीं होता है । अझ दी अपने आपको भिन्न भिन्न रूपों में अभिव्यक्त करता है । और साथ साथ अपने अखंड भद्वैत भाव में स्थित रहता है । विभक्त रूप में व्यक्त होते हुए भी अभिव्यक्त रहता है। ब्रह्मैव सृष्टि संरचना का सुरदास वर्णन करते हैं : "अखण्डाद्वैतमाने तु सर्व मीव नान्यथा” (वही, 91) "जो हरि करे सो होइ, करता राम हरी ज्यों दरपन में प्रतिबिंब त्यों सब सृष्टि करी । आदि निरंजन, निराकार, कोई हु तो न दूसर क्यों सृष्टि विस्तार, मई इच्छा एक औसर ॥ इस प्रकार महा आविर्भाव और तिरोभाव द्वारा सरी "जीव और जगत दोनों ही ब्रह्म के अंश है । "ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातनः" (गी., 5-7) ( पू. सा., पृ. 25 ) सृष्टि की संरचना करता है। इसलिए उनका अस्तित्व प्रतीतिं या मिथ्या नहीं है, वास्तव में सत्य हैं क्योंकि ब्रह्म स्वयं सत्य है । बद जगत एवं चेतन दोनों ही ब्रह्म के अंश होने के कारण सत्य है। ब्रह्म सत्, चित् एवं आनन्द है । जब जगत में ब्रह्म के सत् तत्त्व का आविर्भाव होता है और चिद आनन्द तत्व का तिरोभाव [Samipya: April, '91-March, 1992 114 ] For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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