Book Title: Samansuttam Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 16
________________ जीवन का प्रादर्शः ___गुणात्मक नमस्कार और गुणात्मक शरण से यह फलित होता हैं कि अरहंत-अवस्था और सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति मानव-जीवन का आदर्श है.। इसी को समता की प्राप्ति की अवस्था' कहा गया है (139) । यह हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से परें क्षोभ-रहित अक्स्था है। यहीं मोहरहित अवस्था हैं (139)। चारित्र की इसी अवस्था में धर्म अपने वास्तविक रूप में अभिव्यक्त होता हैं (139).। यहां पर यह समझना चाहिए कि समता की प्राप्ति ही शुद्धोपयोग की प्राप्ति है, निवारण की प्राप्ति है तथा परम प्रात्मा की प्राप्ति है। समतामय जीवन ही . पूर्ण अहिंसा व पूर्ण अनासक्तता का जोक्न है (82,84,138). समता के अभाव में मनुष्य मानसिक तनाव से ग्रसित होता है। इस कारण से उसके कर्म-बन्धन होता है । इस कर्म-बन्धन के फलस्वरूप वह बार-बार जन्म लेता रहा हैं (23) और उसका मानसिक तनाव बना रहता है। यह मानसिक तनाव कभी शुभ कर्मों में प्रकट होता है और कभी अशुभ कर्मों में । समरणसुत्तं का कहना है कि जैसे काले लोहे से बनी हुई बेड़ी व्यक्ति को वांधती है और सोने की बेड़ी भी व्यक्ति को बांधती है, वैसे ही जीक के द्वारा किया हुआ मानसिक व्यग्रतात्मक शुभ-अशुभ कर्म भी जीव को बांधता है । इसलिए समणसुतं का शिक्षण है कि मानसिक तनाव उत्पन्न करने वाले शुभ-अशुभ कर्मों के साथ बिल्कुल राग मत करों और उनके साथ सम्पर्क भी मत रक्खो, क्योंकि आत्मा का स्वतन्त्र । स्वभाव उनके साथ सम्पर्क और उनके साथ राग से व्यर्थ हो जाता है (110)। अनासक्ति का जीवन ही इस मानसिक तनाव का अन्त कर . सकता है । इसलिए जिस कारण से अनासक्ति उत्पन्न होती है, वह पूर्ण सावधानी से पालन किया जाना चाहिए । श्रेष्ठ अनासक्त व्यक्ति कर्म-बन्धन से छुटकारा पा जाता है। किन्तु, आसक्त व्यक्ति कर्मबंधन चयनिका ] [ vir Jain Education International. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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