________________
xxxiv
]
सकारात्मक अहिंसा
परोपकार आदि प्रवृत्तियों के पीछे सदैव रागभाव होता है । जब राग नहीं होता है तो द्वष भी नहीं होता है और जहाँ राग-द्वेष का अभाव होता है वहाँ बन्धन सम्भव ही नहीं है। इसी प्रकार एक डाक्टर जब किसी रोगी के सड़े हुए अंग का आपरेशन करके उसे निकालता है तो उसमें उस सड़े हुए अंग में निहित कीटाणुओं के प्रति द्वेष और रोगी के प्रति राग नहीं होता है, मात्र बचाने का भाव होता है। किसी प्यासे को पानी पिलाते समय हमें न तो जल के जीवों के प्रति द्वष होता है और न प्यासे के प्रति राग। अतः सेवा, परोपकार आदि की प्रवृत्तियाँ राग-द्वेष से प्रेरित नहीं होती है, अतः वे बन्धक भी नहीं होती हैं।
वस्तुतः सकारात्मक अहिंसा अर्थात् जीवन-रक्षण, सेवा, परोपकार आदि की प्रवृत्तियाँ रागात्मकता पर आधारित न होकर "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना पर आधारित होती हैं। "प्रात्मवत सर्वभूतेष" की यह अनुभूति तब तक यथार्थ नहीं बनती जब तक कि व्यक्ति के लिए दूसरों के पीड़ा और दुःख अपने नहीं बन जाते । यद्यपि जैनदर्शन प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है, किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है कि संसार के सभी प्राणी मेरे ही समान हैं। प्राचारांगसूत्र (1/5/5) में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि "जिसे तू दुःख देना चाहता है वह तू ही है।" यहाँ विवेक और संवेदनशीलना के आधार पर ही "प्रात्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना को खड़ा किया गया है। वह मात्र तार्किक नहीं है । जब तक संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् भाव उत्पन्न नहीं होता है तब तक अहिंसा का अंकूर प्रकट ही नहीं हो सकता । अहिंसा के लिए रागात्मकता नहीं आत्मवत दृष्टि प्रावश्यक है। क्योंकि यदि रागात्मकता सकारात्मक अहिंसा का आधार होगी तो व्यक्ति केवल अपनों की सेवा में प्रवत्त होगा, दूसरों की सेवा में नहीं । सकारात्मक अहिंसा अर्थात् रक्षा, सेवा आदि का आधार न तो प्रत्युपकार की भावना या स्वार्थ होता है और न राग। वह खड़ी होती है-विवेकजन्य कर्तव्य बोध के आधार पर ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org