________________
पूर्व इतिवृत्त
का प्रारम्भ हुआ । आर्य रोहण के उद्देह गण और नागभूत कुल का एक शिलालेख, कनिष्क स०७ का प्राप्त हुआ है, जो उक्त गण एव कुलो की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालता है।
आर्य सुहस्ती से गणवश, वाचकवश और युग-प्रधानवश–तीन श्रमण-परपराएं प्रचलित हुई। गणधर-वश गच्छाचार्यपरपरा है, वाचकवश विद्यागुरुपरपरा है और युगप्रधान विभिन्न गण एव कुलो के प्रभावशाली आचार्यों की क्रमागत परपरा है ।
आर्य सुहस्ती का वीर स० १९१ मे जन्म, २१५ मे दीक्षा, २४५ मे युग-प्रधान आचार्यपद और २९१ मे १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर उज्जयिनी मे स्वर्गवास हुआ। ११-१२ मार्य सुस्थित और आर्य सुप्रतिबद्ध
आर्य सुहस्ती के उपर्युक्त दोनो ही शिष्य युग प्रभावक आचार्य थे । कल्प-सूत्र स्थविरावली मे दोनो का साथ-साथ उल्लेख है और दोनो के ही एक पट्टधर इन्द्र दिन्न शिष्य का होना बताया है। दोनो के लिए कोटिक-काकन्दक विशेषण है । दोनो काकन्दी नगरी के रहने वाले, राजकुल मे उत्पन्न हुए व्याघ्रापत्य गोत्रीय सगे भाई थे। दोनो आचार्यों ने भुवनेश्वर (उडीसा) के निकट कुमारगिरि पर्वत पर कठोर तपश्चरण किया । आर्य सुस्थित गच्छनायक थे, तो आर्य सुप्रतिबद्ध वाचनाचार्य । हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार इनके युग मे भी कुमारगिरि पर्वत पर एक लघु श्रमण-सम्मेलन हुआ था और द्वितीय आगम वाचना का सूत्रपात । कलिंग (उडीसा) मे उस समय वैशाली गणतन्त्र के अधिनायक राजा
चेटक के सुपुत्र शोभनराज का, जो पिता की मृत्यु के बाद कलिग चले आए थे, राजवश का शासन चल रहा था। हिमवन्त स्थविरावली के मतानुसार, इसी वश मे आगे चलकर यवन विजेता महामेघवाहन खारवेल हुए, जो सम्राट भिक्षुराज के नाम से सुप्रसिद्ध थे, शुद्ध जैन धर्मावलबी और प्रजापालक नरेश । इन्होने कुमारगिरि (भुवनेश्वर निकटवर्ती उदयगिरि) पर अनेक जैन गुफाओ का निर्माण कराया । हाथी गुफा मे ब्राह्मीलिपि मे अकित मागधी भापा का शिलालेख, आज भी खारवेल की दिग्दिगन्तव्यापिनी कीर्ति-गाथा का उद्घोष कर रहा है। उदयगिरि की गुफाओ का वातावरण बडा ही शान्त, भव्य और अलौकिक है । सन् १९६२ मे, इन पक्तियो का लेखक कुछ समय गुफाओ मे रहा है, ध्यान साधना की है । अद्भुत शान्ति निश्चल एकाग्रता और चिज्ज्योति की विलक्षण अनुभूति । आज भी वह सब स्मृति को गुदगुदा जाता है।
आचार्य सुस्थित ३१ वर्ष गृहस्थ दशा मे, १७ वर्ष सामान्य व्रत-पर्याय मे और ४८ वर्ष आचार्य पद मे रहकर ६६ वर्ष का सर्वायु पूर्ण कर वीर स० ३३६ मे कुमारगिरि पर्वत पर स्वर्गवासी हुए । १३. प्रार्य इन्द्र दिन्न
आचार्य इन्द्रदिन्न का सस्कृत रूपान्तर इन्द्रदत्त होता है । आप कौशिक गोत्री ब्राह्मण थे । आपका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं है। आपके गुरुभ्राता आर्य प्रियग्रन्थ महाप्रभावक मुनि हुए है, चित्तौड के