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राष्ट्रकूट
वि० सं० से २१२ ( ई० स० से २६९ ) वर्ष पूर्व, भारत में अशोक एक बड़ा प्रतापी और धार्मिक राजा हो गया है । इसने अपने राज्य के प्रत्येक प्रान्त में अपनी धर्माज्ञायें खुदवाई थीं। उनमें की शाहबाजगढ़, मानसेरा ( उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश ), गिरनार ( सौराष्ट्र ), और धवली ( कलिङ्ग ) की धर्माज्ञाओं में "काम्बोज" और "गांधार" वालों के उल्लेख के बाद ही "रठिक," "रिस्टिक" (राष्ट्रिक ), या "लठिक" शब्दों का प्रयोग मिलता है।
डाक्टर डी. आर. भण्डारकर इस 'रिस्टिक' ( या राष्ट्रिक ) और इसी के बाद लिखे "पेतेनिक" शब्द को एक शब्द मानकर, इसका प्रयोग महाराष्ट्र के वंश परंपरागत शासक वंश के लिए किया गया मानते हैं । परन्तु शाहबाजगढ़ से मिले लेख में “यवन कंबोय गंधरनं रठिकनं पितिनिकनं” लिखा होने से प्रकट होता है कि, ये "रिस्टिक" (रठिक) और "पेतेनिक" (पितिनिक) शब्द दो मिन्नजातियों के लिए प्रयोग किये गये थे ।
श्रीयुत सी. वी. वैद्य उक्त (राष्ट्रिक) शब्द से महाराष्ट्र निवासी राष्ट्रकूटों का तात्पर्य लेते हैं, और उन्हें उत्तरीय राष्ट्रकूटों से भिन्न मरहटा क्षत्रिय मानते हैं । परन्तु पाली भाषा के 'दीपवंश' और 'महावंश' नामक प्राचीन ग्रन्थों में महाराष्ट्र निवासियों के लिए "राष्ट्रिक" शब्द का प्रयोग न कर "महारट्टै' शब्द का प्रयोग किया गया है।
(१) अशोक ( श्रीयुत भण्डारकर द्वारा लिखित ), पृ० ३३ (२) अंगुत्तरनिकाय में भी " रहिकस्स " और " पेत्तनिकस्स" दो भिन्न पद लिखे हैं। (३) हिस्ट्री ऑफ मिडिएवल हिन्दू इण्डिया, भा॰ २, पृ. ३२३ (४) हिस्ट्री ऑफ मिदिएवल हिन्दू इण्डिया, भा॰ २, पृ० १५२-१५३. (५) ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी के भाजा, बेडसा, कारली, और नानाघाट की गुफाओं के
लेखों से ज्ञात होता है कि, यह " महारह" जाति बड़ी दानशील थी।
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