Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka Author(s): Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 3
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का अलोकीक है । जो गोमट्टसारादि ग्रंथां की संपूर्ण लाख श्लोक टीका बणाई और पांच सात ग्रंथां का टीका बणायवे का उपाय है। सो आयु की अधिकता हुवां बगा । अर धवल महाधवलादि ग्रंथां के खोलबा का उपाय कीया वा उहां दक्षिण देस सूं पांच सात और ग्रंथ ताड़पत्रां विषै कर्णाटी लिपि मैं लिख्या इहां पधारे हैं, ताकूं मलजी बांचे हैं, वाका यथार्थ व्याख्यान करे हैं वा कर्णाटी लिपि मैं लिखि ले हैं। ४ इत्यादि न्याय व्याकरण गणित छंद अलंकार का याकै ज्ञान पाईए है। ऐसे पुरुष महंत बुद्धि का धारक ई काल विषै होनां दुर्लभ है। तातैं यांसूं मिलें सर्व संदेह दूरि होइ है। घणी लिखबा करि कहा, आपणां हेत का बांछीक पुरुष सीघ्र आय आसूं मिलाप करो। " उक्त कथनों से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि छोटी-सी उम्र में भी उनकी कितनी प्रतिष्ठा थी । रहस्यपूर्णचिट्ठी का प्रारंभिक अंश इसप्रकार है ह्न "सिद्ध श्री मुलताननगर महा शुभस्थान में साधर्मी भाई अनेक उपमा योग्य अध्यात्मरसरोचक भाई श्री खानचन्दजी, गंगाधरजी, श्रीपालजी, सिद्धारथदासजी, अन्य सर्व साधर्मी योग्य लिखी टोडरमल के श्री प्रमुख विनय शब्द अवधारण करना । यहाँ यथासम्भव आनन्द है, तुम्हारे चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि चाहिए। अपरंच तुम्हारा एक पत्र भाईजी श्री रामसिंहजी भुवानीदासजी पर आया था, उसके समाचार जहानाबाद से मुझको अन्य साधर्मियों ने लिखे थे। सो भाईजी, ऐसे प्रश्न तुम सरीखे ही लिखें। इस वर्त्तमानकाल में अध्यात्मरस के रसिक बहुत थोड़े हैं। धन्य हैं जो स्वात्मानुभव की बात भी करते हैं। वही कहा है ह्र १. पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, पृष्ठ ३४४ पहला प्रवचन तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता । निश्चितं स भवेद्धव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।। जिस जीव ने प्रसन्नचित्त से इस चेतनस्वरूप आत्मा की बात भी सुनी है, वह निश्चय से भव्य है। अल्पकाल में मोक्ष का पात्र है।" यद्यपि यह पत्र पण्डितजी ने उन लोगों के नाम से लिखा था, जिन लोगों के नाम उस पत्र में थे, जिनके द्वारा प्रश्न पूछे गये थे; तथापि पण्डितजी यह अच्छी तरह जानते थे कि ये प्रश्न मुलताननगर के जिनमंदिर में चलनेवाली शास्त्रसभा में चर्चित प्रश्न हैं । अतः उनके उत्तर भी शास्त्रसभा में अवश्य पढ़े जावेंगे। इसप्रकार यह रहस्यपूर्णचिट्ठी मुलतान जैन समाज के अध्यात्मरसरोचक साधर्मी भाई-बहिनों के नाम थी। यही कारण है कि वे लिखते हैं कि टोडरमल्ल का श्री प्रमुख विनय शब्द अवधारण करना । तात्पर्य यह है कि सभी को यथायोग्य अभिवादन कहना । पुराने जमाने में इसप्रकार के सामूहिक पत्रों के अन्त में एक दोहा लिखने की परम्परा थी; जो इसप्रकार है ह्र चिट्ठी बाँचत के समय, जो जन बैठे होंय । है जुहारु सब जनन को, जो जी लायक होंय ।। तात्पर्य यह है कि यह पत्र पढ़ते समय जो लोग बैठे हों, उन सभी को यथायोग्य नमस्कार कहना बड़ों को प्रणाम, छोटों को आशीर्वाद और बराबरीवालों को जयजिनेन्द्र कहना । उक्त संदर्भ में एक रोचक संस्मरण सुनने योग्य है। बात उस समय की है कि जब मैं १४-१५ वर्ष का रहा होऊँगा। मैं मुरैना विद्यालय में पढ़ता था और शास्त्री - न्यायतीर्थ होनेवाला था । गर्मियों की छुट्टी में अपने गाँव आया था। शादियों की लग्नपत्रिका के साथ एक पत्र आता है; जो लग्नपत्रिका के साथ ही सभी समाज के समक्ष पढ़ा जाता है। १. पद्मनन्दिपंचविंशतिका ( एकत्वाशीति छन्द २३ )Page Navigation
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