Book Title: Prernani Pavan Murti Sadhvi Mrugavatishreeji
Author(s): Kumarpal Desai, Malti Shah
Publisher: B L Institute of Indology
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પ્રેરણાની પાવનમૂર્તિ
परिशिष्ट-५
बात कहने का था अंदाज निराला, अंधेरा मिटे मन से हो जाये उजाला | उनमें छुपे गुणों को गुरु वल्लभ ने पहचाना, वो है महान नारी, इस बात को माना । कल्पसूत्र यांचने की आज़ा दी उन्हें, वह पहेली साध्वी थी, मिला मान ये जिन्हें । जिस गुरु ने इतना उनको मान दिया था, जग में ऊँचा उस गुरु का नाम किया था । बनवाया स्मारक वल्लभ का ऐसा शानदार, आता है करने दर्शन, जहां सारा संसार । जो काम लिया हाथ में किया संपूर्ण लगन से, तन और मन से जिनधर्म को यो समर्पित थी । जब तक रही जिन्दा, जुटी रही यो परहित थी, क्रूर नियति ने उन्हें कम समय दिया था, छोटी सी उम्र में ही हमसे छीन लिया था । बीस सौ व्यालीस संवत था जब आया, आषाढ सुदि द्वादशी ने कहर था ढाया । काल बन के सितमगर लेने इन्हें आया, चारों तरफ था जैसे मातम कोई छाया । आंखो से आंसू बह रहे थे दिल था दुःख भरा, श्रद्धांजली देने को सारा देश उमड़ पड़ा । गुरुजी तेरा उपकार हम भुला नहीं सकते, लाख्न चाहें तुमको वापिस ला नहीं सकते । सुशिष्या सुब्रताने काम गुरु का संभाला, उन्हीं के रंग ढंग में स्वयं को रंग डाला । रहते हैं जिन्दा कौम पे जो जान खोते हैं, धर्म पे जान देने वाले अमर होते हैं। आशीर्वाद आपका गुरुजी रहे सदा, हे प्रोमिला की हाथ जोड कर यही दुआ ।
नीत शीश झकाऊं मैं । संत जनो के पद पंकम में, नित उठ शीश झुकाऊं मैं, मृगावती जैसी सतियों को, आज कहां से पाऊं मैं ।।१।। जिनके अमृत उपदेशों से, जनजीवन उपवन सरसा था, हर भूला भटका राही भी, अपनी मंजील का पथ पाता, आंखों से बहती थी करुणा, अपने को नहलाऊं मैं ।।२।। मृगावती जिनकी गरिमा से गुंज रहा, धरती अंबर ये सारा है, सारे जगमें युग युग बहती, जिनके पुण्यो की धारा है, उनकी अनुपम गाथा को, शब्दों में क्या बतलाऊं मैं ।।३।। मृगायती जो अपने और पराये के, भेदों से उपरत रहते थे, जो निन्दा और प्रशंसा दोंनो, को समता से सहते थे, क्षीर सिन्धु सम उनका जीवन, दिलकी प्यास बुझाऊं मैं ||४|| मृगावती परहित में जो रत रहते थे, नि:स्वार्थ सेवा करते थे, अपनी मंगलमय वाणी से, जन जन की पीडा हरते थे, ऐसी पावन आत्मा उनकी, बलिहारी नित जाऊं मैं ।।५।। मृगावती
स्मृति
१.
- सन्तोष जैन परम विदुषी मृगायतीजी, कैसी जन कल्याणी थी । मरुधर में बहती हो सरिता, ऐसी उनकी वाणी थी ।। तप संयम की देवी थी वह, मानवता की मूरत थी । मन्दिर की प्रतिमा हो जैसी, ऐसी दिलकश सूरत थी ।। नयनों से था नेह छलकता, सहज ही मन को छू जाता । दर्श करे इक बार जो प्राणी, बस फिर उनका हो जाता ।। युग-युग धरती तप करती है, ऐसी कली तब खिलती है । मधुबन जिससे महक है उठता, शीतल छाया मिलती है ।। कैसे करुं गुणगान तुम्हारा, शब्दों की बारात नहीं । सागर को बाहों में भरना, मेरे बस की बात नहीं ।।
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