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वर्धमानसूर ↓
देवचन्द्रसूरि
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चन्द्रप्रभ (मुनिपति)
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भद्रेश्वरसूरि
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अजितसिंहसूर
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देवप्रभसूर ( प्रमाणप्रकाश एवं श्रेयांसचरित्र के कर्ता)
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सिद्धसेनसूरि (प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार)
ज्ञातव्य है उस काल में जब ग्रन्थों की हाथ से प्रतिलिपि तैयार कराकर उन्हें प्रसारित किया जाता था तब उन्हें दूसरे लोगों के पास पहुँचने में पर्याप्त समय लग जाता था । अतः प्रस्तुत कृति से सिद्धसेनसूरि को परिचित होने और पुनः उस पर टीका लिखने में पच्चीस-तीस वर्ष का अन्तराल तो अवश्य ही रहा होगा । अतः यदि टीका विक्रम की तेरहवीं शती के पूर्वार्ध के द्वितीय चरण विक्रम संवत् १२४८ लिखी गई है तो मूलकृति कम से कम विक्रम की तेरहवीं शती के प्रथम चरण अर्थात् वि.सं. १२२५ में लिखी गई होगी । अतः प्रवचनसारोद्धार की रचना १२२५ के आसपास कभी हुई होगी । प्रवचनसारोद्धार मौलिक रचना है या मात्र संग्रहग्रन्थ ?
प्रवचनसारोद्धार आचार्य नेमिचन्द्रसूरि की मौलिक कृति है या एक संकलन ग्रन्थ है, इस प्रश्न का उत्तर देना अत्यन्त कठित है, क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ में ६०० से अधिक गाथाएँ ऐसी हैं जो आगम-ग्रन्थों, निर्युक्तियों, भाष्यों, प्रकीर्णकों, प्राचीन कर्मग्रन्थों एवं जीवसमास आदि प्रकरणग्रन्थों में उपलब्ध हो जाती हैं । प्रवचनसारोद्धार की भारतीय प्राच्य तत्त्व प्रकाशन समिति, पिण्डवाड़ा से प्रकाशित प्रति में उसे विद्वान सम्पादक मुनि श्री पद्मसेनविजय जी और मुनि श्रीचन्द्रविजय जी ने इसकी लगभग ५०० गाथाएँ जिन-जिन ग्रन्थों से ली गई हैं, उनके मूलस्रोत का निर्देश किया है। इनके अतिरिक्त भी अनेक गाथायें ऐसी हैं
आवश्यक सूत्र की हरिभद्रीयवृत्ति आदि प्राचीन टीका ग्रन्थों में उद्धत हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मेरे शिष्य डा. श्रीप्रकाश पाण्डेय की सूचना के अनुसार प्रवचनसारोद्धार में सात प्रकीर्णकों की भी लगभग ७२ गाथाएँ मिलती हैं। कहीं-कहीं पाठभेद को छोड़कर ये गाथायँ भी प्रवचनसारोद्धार में समान रूप से ही उपलब्ध होती हैं। इसमें आचारांगनिर्युक्ति की १ अंगुलसप्तति की ३, आवश्यकनिर्युक्ति की ७१, आवश्यक भाष्य की ७ उत्तराध्ययन की १२ उत्तराध्ययन निर्युक्ति की १३, ओघनिर्युक्ति की २२, ओघनिर्युक्तिभाष्य की १२, प्राचीन कर्मग्रन्थों की १९, चैत्यवंदन महाभाष्य की १७ जीवसमास की २८, जम्बूदीपप्रज्ञप्ति ४, दशवैकालिक नियुक्ति की १८, धर्मसंग्रहणी की ३, निशीथभाष्य की २७, पंचकल्पभाष्य
भूमिका
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