Book Title: Pratikraman Sutra Sachitra
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 7
________________ నా తమ ల మ లాగా इन उपयोग-लेश्या-ध्यान को मन में सुचारु रुप में लाने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि प्रत्येक सूत्र का पदार्थ मन के सामने लाया जाए । उदाहरणार्थ, (१) 'नमो अरिहंताणं सूत्राक्षर बोलते समय अष्टप्रातिहार्य युक्त अनंत अरिहंत मन के सामने देखें व उनके चरण में नमस्कार करते हुए हमारे अनंत सर देखें, प्रत्येक के चरण में हमारा एकेक सर झुका हुआ दिखाइ पडे । वैसे 'नमो सिद्धाणं' आदि बोलते समय सिद्ध भगवान आदि हरेक परमेष्ठी अपने अपने पोझ में दिखाइ पडे । जैसे कि, सिद्ध सिद्धशिला पर, आचार्य पाट पर आचार-प्रवचन करते हुए, उपाध्याय साधुमंडली को पढाते हुए, साधु कायोत्सर्ग-ध्यानमें खडे रहे दिखे। (२) 'लोगस्स' सूत्र में पहली पंक्ति के उच्चारण समय सामने २४ व अन्य अनंत तीर्थंकर एवं उनके आसपास व पीछे अन्य अनंत तीर्थंकर लोकालोकमय सारे विश्व को ज्ञान-प्रकाश करते हुए सूर्य समान दिखे । 'धम्मतित्थयरे' पद से सभी भगवान समवसरण पर उपदेश करते हए दिखे | 'जिणे' पद से सभी कायोत्सर्ग ध्यान में रागद्वेष का विजय करते हए, 'अरिहंत' पद से सभी अष्ट प्रातिहार्य युक्त दिखाई पडे । २-३-४ गाथा से प्रत्येक पद में निर्दिष्ट संख्या के अनुसार भगवान दिखाई दे जैसे कि 'उसभमजियं च' गाथा से क्रमशः नीचे नीचे २,३,२,१यों ८ भगवान दिखे। (३) 'नमोत्थुणं अरिहंताणं' सूत्र में 'अरिहंताणं' के वक्त अष्ट प्रातिहार्य युक्त भगवान 'भगवंताणं' के वक्त सुवर्णकमल पर पैर रखे इत्यादि ऐश्वर्यवाले भगवान दृश्यमान हो । (४) 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र में 'जो देवाण वि देवो' पद से वीर प्रभ को देवो के भी देवरुप में दिखलाना है, कैसे देखें जाए? यों, महावीर परमात्मा विहार में आगे चले आते व उनकी सेवा में क्रोड देवता हाथ जोड चले आते देखें। ऐसा देखने से पता चलता है कि प्रभु देवों के भी देव है। 'जं देवा पंजलिं...' में सामने आकाश में से झुके हुए देवता उतरते देखें । 'तं देवदेव-महियं' से (देवदेव इन्द्र, महिय-पूजित) प्रभु के दो बाजू इन्द्र चंवर ढालते हुए दिखें । इस प्रकार चित्रों के द्वारा सूत्र-पदार्थ सामने दिखाई पड़ने से मन तन्मय व भावभरा बनता है । चित्रों की यह महिमा अन्य धर्मक्रियाओं में भी लागू होती है । कारण यह है कि, धर्म चित्त की विशुद्ध परिणति है, चित्त की विशुद्धि है | विषयों का व कषायों का आवेश रोकने से चित्त में वह विशुद्धि प्राप्त होती है । इसलिये जीवन धर्ममय बनाने के लिए ऐसी विशुद्धि यानी विशुद्ध परिणतिमय चित्त बनाना जरुरी है । सामान्य नियम यह है कि जैसा संयोग व जैसी क्रिया, चित्त वैसे भाववाला बनता है इसके अनुसार दुन्यवी धन-परिवारादि के संयोग में व आरम्भ विषय-परिग्रहादि की क्रिया में राग-द्वेषादि काषायिक भावों से युक्त बनेगा । जब कि वीतरागदेव, त्यागी गुरु, तीर्थ इत्यादि के संयोग में एवं देवदर्शन-पूजन, जीवदया, साधु-समागम, शास्त्र-श्रवण, तप-जप-दानादि साधना के समय मन के राग-द्वेषादि दबकर विशुद्ध परिणति जाग्रत होती है इसलिए विशुद्ध परिणति के कारणभूत ये देवदर्शनादि भी धर्म कहलाते हैं। प्र०-'देवाधिदेव आदि का संयोग मिलने पर भी व देवदर्शनादि साधना करते समय भी मन क्यों चंचल रहता है ? क्यों वह अन्यान्य विषय में जा कर राग-द्वेषादि में पड़ता है ?' उ०-जीव को जिसका ज्यादा रस है उसमें मन बार बार जाता हैं । अगर मन को धर्म में स्थिर करना हो तब दुन्यवी विषयों का रस घटाया जाए व धर्म साधना का रस बढाया जाए यह अति आवश्यक है । विषय रस घटाने के लिए विषयों में वैराग्य-नफरत-अनास्था व आत्महितघातकता का दर्शन बढ़ाया जाए व धर्म-साधना अतीव आत्महितकारक होने से इसमें अत्यंत उपयुक्तता-उपादेयता की भावना दृढ की जाए । इसके लिए तादृश कल्पना-चित्र खड़ा किया जाए। उदाहरणार्थ, नवकार-स्मरण के समय मनके सामने अनंत अरिहंत, अनंत सिद्ध आदि क्रमशः देखे जाए । देवदर्शन के समय प्रभु को समवसरण पर बैठे हुए व अष्ट प्रातिहार्य आदि सर्व शोभा से युक्त देखे जाए । एवं स्तुति के समय इसके अनुसार मन के सामने चित्र खड़ा किया जाए। प्रभप्रक्षालादि के समय मेरुपर्वत पर इन्द्र अभिषेकादि करते दिखाई पड़े । चैत्यवंदन में प्रत्येक सूत्र-गाथा इसका चित्र देखकर ही बोली जाए । जैसे कि, इरियावहियं बोलते समय कोर्ट के समक्ष खूनी के इकरार का चित्र देखा जाए, 'जं किंचि०' बोलते समय जगत के तीर्थ व जिनप्रतिमा देखे जाए । - इसीलिए यह चित्रावलि (आल्बम) है। इसमें सूत्रों के पद पद या गाथा गाथा का चित्र बताया गया है । बार बार यह देखने से सूत्र बोलते समय मनके सामने सरलता से वह उपस्थित हो जाता है, यह देखने में मन तन्मय हो जाने से बाह्य विषय में नहीं जाता है व चित्र के अनुसार तादृश द्रश्य दिखाई पड़ने से भावोल्लास बढ़ जाता है।

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