Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2 Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan View full book textPage 4
________________ (प्रकाशकीय) प्राकृत भाषा जन-साधारण की भाषा के रूप में प्राचीन समय से ही विकास को प्राप्त होती रही है। वैदिक-युग तक यह भाषा जन-सामान्य की लोक प्रचलित भाषा रही है। महावीर ने इसी जन-भाषा 'प्राकृत' को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। जन-सामान्य की यही भाषा कुछ समय पश्चात् साहित्यिक भाषा के रूप में हमारे सामने आयी। आगम ग्रंथों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में इसका प्रयोग होने लगा। इसके पीछे जन-सामान्य का प्राकृत भाषा के प्रति सम्मान ही कहा जा सकता है। वेदों की रचना जिस भाषा में हुई, उस भाषा में भी प्राकृत भाषा के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। इससे यह तो स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा का विकास वैदिक युग से ही होने लगा था। अतः उस मूल लोक-भाषा में जो विशेषताएं थीं, वे बाद में वैदिक-भाषा, प्राकृत-भाषा में समान रूप से आती रही हैं। __ प्राकृत व्याकरण शास्त्र की उपर्युक्त परम्परा से स्पष्ट है कि प्राकृत व्याकरण विद्वानों के अध्ययन का विषय रहा है। भारतीय एवं विदेशी विद्वानों ने भी आधुनिक युग में स्वतंत्र रूप से आगम ग्रन्थों का सम्पादन करते समय प्राकृत व्याकरण शास्त्र पर विशद प्रकाश डाला है। वर्तमान में भी प्राकृत व्याकरण के अध्ययन के लिए आधुनिक-शैली में प्राचीन परम्परा का सन्निवेश करते हुए विद्वानों ने इस दिशा में कुछ अध्ययन प्रस्तुत किए हैं। प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से पण्डितरत्न श्री प्यारचन्द जी महाराज की हेम-प्राकृत-व्याकरण जो दो भागों में श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर से प्रकाशित हुई है, वह महत्वपूर्ण कृति कही जा सकती है, किन्तु यह कृति वर्तमान में तो प्रायः अनुपलब्ध ही है। अतः विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत् छात्रों, साधु-साध्वियों एवं प्राकृत भाषा तथा व्याकरण के जिज्ञासुजनों को प्राकृत व्याकरण के समस्त सूत्रों का सरल एवं सहज ज्ञान उपलब्ध हो सके इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हमने हेम-प्राकृत-व्याकरण के पूर्व में प्रकाशित दोनों भागों को पुनः प्रकाशित करने का निर्णय लिया और इस हेतु पूर्व प्रकाशक संस्था 'श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर' से अनुमति प्राप्त कर इस कार्य को प्रारम्भ किया। हमारे लिए प्रसन्नता की बात है कि संस्थान के अकादमीय संरक्षक प्रो. सागरमल जैन, मानद निदेशक प्रो. प्रेम सुमन जैन का संस्थान के विकास में हर सम्भव सहयोग एवं मार्गदर्शन मिल रहा है। संस्थान के सह निदेशक डॉ. सुरेश सिसोदिया ने संस्थान के पूर्व प्रभारी श्री मानमलजी कुदाल के सहयोग से हेम-प्राकृत-व्याकरण के दोनों भागों का सम्पादन किया है, इस हेतु हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। प्रूफ संशोधन मं डॉ. उदय चंद जैन एवं डॉ. शक्ति कुमार शर्मा का जो सहयोग मिला है, उस हेतु उनका भी आभार प्रकट करते हैं। प्रस्तुत ग्रंथ का प्रकाशन उदारमना सुश्रावक एवं संस्थान के संरक्षक श्री सुन्दरलाल जी दुगड़, कोलकाता द्वारा संस्थापित 'रूप-रेखा प्रकाशन निधि के अन्तर्गत किया जा रहा है, इस हेतु हम श्री सुन्दरलाल जी दुगड़ के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। ग्रंथ के सुन्दर एवं सत्वर मुद्रण के लिए हम न्यू युनाईटेड प्रिन्टर्स, उदयपुर को धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। सरदारमल कांकरिया वीरेन्द्र सिंह लोढ़ा अध्यक्ष महामंत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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