Book Title: Prakrit Vidya Samadhi Visheshank Author(s): Kundkund Bharti Trust Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 8
________________ [सम्पादकीय साधना का अभीष्ट है डॉ. सत्यप्रकाश जैन पाप पुण्य मिल दोइ पायनि बेड़ी डारी। तन कारागृह मांही मोहि दिये दुख भारी।। इन पंक्तियों में कवि भूधरदास ने तन को कारागृह माना है। एक दार्शनिक ने श्रीकृष्ण के विषय में लिखा था- लोग कहते है श्रीकृष्ण का जन्म जेल में हुआ। मैं कहता हूँ कि आत्मा के लिए यह शरीर जेल ही है। आत्मा ने शरीर धारण किया तो आत्मा को जेल हो ही गई। क्या अन्तर पड़ता हैं जेल जेल में हुई या जेल के बाहर हुई। आत्मा जब भी पर्याय धारण करती है आत्मा को जेल हो जाती है। पर्याय की परिभाषा करते हुए धवला में आचार्य कहते हैं- परिसमन्तादायः पर्यायः -जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त हो सो पर्याय है। जो स्वभाव विभाव रूप से गमन करती है अर्थात् परिणमन करती है वह पर्याय है। नई पर्याय धारण करने में आयु व नाम, गोत्र कर्म का योगदान रहता है। आत्मा के लिए सबसे पहला बन्धन पर्याय है। आत्मा जब पर्याय धारण करती है तो किसी न किसी परिवार में उसका जन्म होता है। संसारी जीव के कर्म संकुल को ही परिवार संज्ञा दी जा सकती है। आत्मा के लिए दूसरा बन्धन परिवार है। परिग्रह की परिभाषा करते हुए आचार्यों ने लिखा है- परि आ समन्तात् गृह्णाति आत्मानम् इति परिग्रहः -जो आत्मा को चारों ओर से अपनी चपेट में ले ले वह परिग्रह है। इसी को स्पष्ट करते हुए आचार्य आगे कहते हैं- मूर्छा तु ममत्वपरिणामः / ममेदं बुद्धिलक्षणः परिग्रहः / अर्थात् यह मेरा है यह बुद्धि या ममत्व परिणाम ही परिग्रह है। आत्मा के लिए तीसरा बन्धन परिग्रह है। यूं तो मनुष्य पर्याय में धन धान्यादि बाह्य परिग्रह है अन्य पर्यायों में इनकी उपलब्धता नहीं होती अतः वहाँ कर्मोपाधिजन्य स्वपर्याय के प्रति ममत्व परिणाम ही उसका परिकर व उसका परिग्रह है। इसके वशीभूत होकर ही जीवन पर्यन्त नाना संकल्प-विकल्पों में जीव जीता है और नवीन कर्म बन्ध कर आगे के जन्ममरण के दुष्चक्र में फँसता चला जाता है। मनुष्य पर्याय में विवेक एक विशिष्ट गुण 600 प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004Page Navigation
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