Book Title: Prakrit Vidya 2000 04
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 4
________________ सम्पादक-मण्डल डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री प्रो० (डॉ०) प्रेमसुमन जैन डॉ० उदयचन्द्र जैन प्रबन्ध सम्पादक डॉ० वीरसागर जैन श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन (011) 6564510 फैक्स (011) 6856286 Kundkund Bharti (Prakrit Bhawan) 18-B, Spl. Institutional Area New Delhi-110067 Phone (91-11)6564510 Fax (91-11) 6856286 “संख्याप्रकृतेरिति वक्तव्यम्, इह मा भूत् । महावार्तिक: कालापकः ।” . –(पातंजल महाभाष्य, 4/2/65) इस वाक्य में महर्षि पतंजलि ने जैन आचार्य शर्ववर्म के कातंत्रव्याकरण' का उल्लेख किया है। इसे ही कलाप' या 'कालापक' भी कहा जाता था। पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने 'कातंत्रव्याकरण' के रचयिता का काल 1500 विक्रमपूर्व स्वीकार किया ___इसीप्रकार ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी में सम्राट् खारवेल ने लुप्त होते जैन आगमों की रक्षा के लिए जैनश्रमणों की विशाल संगीति बुलवाई थी, जिसके फलस्वरूप अवशिष्ट द्वादशांगज्ञान को चार अनुयोगों में सुरक्षित किया गया था। इसका ऐतिहासिक हाथीगुम्फा शिलालेख की पंक्ति 16 में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। पं० हीरालाल जी सिद्धान्ताचार्य ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि कसायपाहुडसुत्त' के रचयिता आचार्य गुणधर का काल विक्रमपूर्व प्रथम शताब्दी है। लगभग यही काल आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त-भूतबलि एवं आचार्य कुन्दकुन्द का भी विद्वानों ने माना है। इन सब तथ्यों से विक्रमपूर्व काल से ही जैनश्रमणों द्वारा ग्रंथरचना के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। इनके आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि विक्रमपूर्व द्वितीय शताब्दी से धाराप्रवाह रूप से जैन-श्रमणों ने ग्रंथ-सृजन प्रारंभ कर दिया था। ** 00 2 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000

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