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अगुणाअरेण
तह
तह
गुण-सु
होहि
जअं
पि
15.
अच्चंत - विएएण
वि
गरुआण
ण
णिव्वडंति
संकप्पा
विज्जुज्जोओ
बहलत्तणेण
मोहे
अच्छीइं
16.
जआ
ण
हु
अरणीभूअ
णवर
1.
[(अगुण) + (आअरेण)
(अगुण) - (आअर) 3 / 1]
अव्यय
'अव्यय
[ ( गुण) - (सुण्ण) 1 / 1]
(हो) भवि 3 / 1 अक
(जअ ) 1 / 1
अव्यय
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[ (अच्चंत ) वि - (विएअ) 3 / 1 वि]
अव्यय
(गरुअ ) 6 / 2 वि
अव्यय
( णिव्वड) व 3 / 2 अक
(संकप्प) 1/2
[(विज्जु) + (उज्जोओ) ] [(विज्जु)-(उज्जोअ) 1/1]
( बहलत्तण) 3 / 1
(मोह) व 3 / 1 सक
(अच्छि ) 2/2
[ ( उवअरणी) वि- (भूअ )
भूकृ- (जअ)' 2/2]
अव्यय
अव्यय
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -
2
=
अगुणों के आदर से
: वैसे
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=
=
=
=
वैसे
= जगत
= भी
=
गुण- शून्य
= अत्यन्त ओजस्वी होने
के कारण
हो जाएगा
= ही
= महान के
= नहीं
= सम्पन्न होते हैं
= - संकल्प
=
= बिजली का प्रकाश
= पुष्कलता के कारण
= अस्त-व्यस्त कर देता है
=
- नहीं
= आश्चर्य
अव्यय
= केवल
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137) तथा 'जअ ' 'मानव जाति' अर्थ में बहुवचन में प्रयुक्त होता है।
आँखों को
= उपकार करने वाले, हुए, मानव जाति के अन्दर
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