Book Title: Prakrit Bhasha Udgam Vikas aur Bhed Prabhed
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 6
________________ अभिन्दन श्री आनन्दका ग्रन्थ श्री आनन्द थ WW ८ प्राकृत भाषा और साहित्य (ख) सेतुबन्ध, गाथासप्तशती आदि काव्यों की महाराष्ट्री भाषा । (ग) प्राकृत व्याकरणों में जिनके लक्षण और उदाहरण पाये जाते हैं, वे महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची भाषाएँ । (घ) दिगम्बर जैन ग्रन्थों की शौरसेनी और परवर्तिकाल के श्वेताम्बरों की जैन महाराष्ट्री भाषा । (ङ) चण्ड के व्याकरण में निर्दिष्ट और विक्रमोर्वशीय में प्रयुक्त अपभ्रंश भाषा । शेष युग (ख्रिस्तीय ५०० से १००० वर्ष ) भिन्न-भिन्न प्रदेशों की परवर्तिकाल की अपभ्रंश भाषाएँ | पण्डित हरगोविन्ददास टी० सेठ का यह विभाजन प्राकृत के भेदों पर विस्तार से प्रकाश डालता है । प्राकृत के भेदों के सम्बन्ध में आगे यथाप्रसंग विस्तार से विचार किया जायेगा । इस सम्बन्ध में विश्लेषण करने से पूर्व प्राकृत की उत्पत्ति पर विचार करना आवश्यक है । प्राकृत के नाम-नामान्तर प्राकृत के लिए पाइय, पाइअ, पाउय, पाउड, पागड, पागत, पागय, पायअ पायय, पायउ जैसे अनेक नाम प्राप्त हैं । जैन अंग साहित्य में तीसरे अंग स्थानांग सूत्र' में पागत शब्द व्यवहृत हुआ है । क्षमाश्रमण जिनभद्रगणिकृत विशेषावश्यक भाष्य की टीका में हेमचन्द्र सूरि ने पागय शब्द का प्रयोग किया है। राजशेखर द्वारा रचित कर्पूरमन्जरी नामक सट्टक में पाउअ शब्द आया है । वाक्पतिराज ने वह नामक अपने प्राकृत काव्य में पायय४ शब्द का प्रयोग किया है । ये सभी शब्द प्राकृत के अर्थ में हैं । नाट्यशास्त्र के रचयिता आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र" में प्राकृत के नाम से इस भाषा को अभिहित किया है । प्राकृत का उत्पत्ति-स्रोत भाषा वैज्ञानिक साधारणतया ऐसा मानते आ रहे हैं कि आर्य भाषाओं के विकास क्रम के अन्तर्गत वैदिक भाषा से संस्कृत का विकास हुआ और संस्कृत से प्राकृत का उद्भव हुआ । इसीलिए भाषा वैज्ञानिक इसका अस्तित्व संस्कृत-काल के पश्चात् स्वीकार करते हैं । इस सम्बन्ध में हमें विशद रूप से विचार करना है । वैयाकरणों की मान्यताएँ — सुप्रसिद्ध प्राकृत वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत - व्याकरण में " प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं व प्राकृतम् । " अर्थात् प्रकृति संस्कृत है, वहाँ होने वाली या उससे आने वाली भाषा प्राकृत १. स्थानांग सूत्र, स्थान ७, सूत्र ५५३ २. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १४६६ की टीका ३. कर्पूरमंजरी, जवनिका १, श्लोक ८ ४. गउडवहो, गाथा ६२ ५. नाट्यशास्त्र, अध्याय १७, श्लोक १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaineliotrary.org

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