Book Title: Prakrit Bhasha Udgam Vikas aur Bhed Prabhed
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 27
________________ प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद २६ जैसा कि सूचित किया गया है, भगवान महावीर और बुद्ध से कुछ शताब्दियों पूर्व पश्चिम या मध्यदेश से वे आर्य, जो अपने को शुद्ध कहते थे, मगध, अंग, बंग आदि प्रदेशों में पहुँच गये हों। व्रात्यस्तोम के अनुसार प्रायश्चित्त के रूप में याज्ञिक विधान का क्रम, बहिष्कृत आर्यों का वर्ण-व्यवस्था में पुन: ग्रहण इत्यादि तथ्य इसके परिचायक हैं। एक बात यहाँ और ध्यान देने की है । पूर्व के लोगों को पश्चिम के आर्यों ने अपनी परम्परा से बहिर्भूत मानते हुए भी भाषा की दृष्टि से उन्हें बहिर्भूत नहीं माना। ब्राह्मण-साहित्य में भाषा के सन्दर्भ में व्रात्यों के लिए इस प्रकार के उल्लेख हैं कि वे अदुरुक्त को भी दुरुक्त कहते हैं,' अर्थात् जिसके बोलने में कठिनाई नहीं होती, उसे भी वे कठिन बताते हैं। व्रात्यों के विषय में यह जो कहा गया है, उनकी सरलतानुगामी भाषाप्रियता का परिचायक है। संस्कृत की तुलना में प्राकृत में वैसी सरलता है ही। इस सम्बन्ध में वेबर का अभिमत है । प्राकृत भाषाओं की ओर संकेत है। उच्चारण सरल बनाने के लिए प्राकृत में ही संयुक्ताक्षरों का लोप तथा उसी प्रकार के अन्य परिवर्तन होते हैं । व्याकरण के प्रयोजन बतलाते हुए दुष्ट शब्द के अपाकरण के सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतञ्जलि ने अशुद्ध उच्चारण द्वारा असुरों के पराभूत होने की जो बात कही है, वहाँ उन्होंने उन पर 'हे अरयः' के स्थान पर 'हेलय' प्रयोग करने का आरोप लगाया है अर्थात् उनकी भाषा में 'र' के स्थान पर 'ल' की प्रवृत्ति थी, जो मागधी की विशेषता है। इससे यह प्रकट होता है कि मागधी का विकास या प्रसार पूर्व में काफी पहले हो चुका था। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के अन्तर्वर्ती सहगौरा नामक स्थान से जो ताम्र-लेख प्राप्त हुआ है, वह ब्राह्मी लिपि का सर्वाधिक प्राचीन लेख है। उसका काल ईसवी पूर्व चौथी शती है। यह स्थान जिसे हम पूर्वी प्रदेश कह रहे हैं, के अन्तर्गत आता है। इसमें 'र' के स्थान 'ल' का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। ऐसा भी अनुमान है कि पश्चिम में आर्यों द्वारा मगध आदि पूर्वीय भू-भागों में याज्ञिक संस्कृति के प्रसार का एक बार प्रबल प्रयत्न किया गया होगा। उसमें उन्हें चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों में ही सही एक सीमा तक सफलता भी मिली होगी। पर जन-साधारण तक सफलता व्याप्त न हो सकी। भगवान महावीर और बुद्ध का समय याज्ञिक विधि-विधान, कर्मकाण्ड, बाह्य शौचाचार तथा जन्मगत उच्चता आदि के प्रतिकूल एक व्यापक आन्दोलन का समय था । जन-साधारण का इससे १. अदुरुक्तवाक्यं दुरुक्तमाहुः । -ताण्ड्य महाब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण २. तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवुः । तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छित वै नामभाषित वै । म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः । -महाभाष्य, प्रथम आन्हिक, पृष्ठ ६ amanarasinivenubuirraturmuscwODANA धामना आदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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