Book Title: Prakrit Bhasha Udgam Vikas aur Bhed Prabhed
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 28
________________ आचार्मप्रवभिनआचार्यप्रवर भिलों श्राआनन्द अन् श्रीआनन्दा अन्य ३० प्राकृत भाषा और साहित्य AF प्रभावित होना स्वाभाविक था ही, सम्भ्रान्त कुलों और राजपरिवारों तक इसका असर पड़ा । महावीर और बद्ध के समकालीन कई और भी धर्माचार्य थे, जो अपने आपको तीर्थकर कहते थे । पूरण काश्यप, मक्खलि गोशाल, अजित केशकंबलि, पकुधकत्यायन तथा संजयवेलट्रिपुत्त आदि उनमें मुख्य थे। बौद्ध वाङमय में उन्हें अक्रियावाद, नियतिवाद, अच्छेदवाद, अन्योन्यवाद तथा विक्षेपवाद के प्रवर्तक कहा गया है। यद्यपि आचार-विचार में उनमें भेद अवश्य था, पर वे सबके सब श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत माने गये हैं। ब्राह्मण-संस्कृति यज्ञ-प्रधान थी और श्रमण-संस्कृति त्याग-वैराग्य और संयम प्रधान । श्रमण शब्द की विद्वानों ने कई प्रकार से व्याख्या की है। कुछ विद्वानों ने इसे श्रम, सम और शम पर आधृत माना है। फलतः तपश्चर्या का उग्रतम स्वीकार, जातिगत जन्मगत उच्चत्व का बहिष्कार तथा निर्वेद का पोषण इन पर इसमें अधिक बल दिया जाता रहा है । श्रमण-परम्परा के अन्तवर्ती ये सभी आचार्य याज्ञिक तथा कर्मकाण्डबहुल संस्कृति के विरोधी थे। यह एक ऐसी पृष्ठभूमि थी, जो प्राकृतों के विकास और व्यापक प्रसार का आधार बनी । भगवान् महावीर और बुद्ध ने लोक-भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। सम्भव है, उपर्यक्त दूसरे आचार्यों ने भी लोक-भाषा में ही अपने उपदेश किये होंगे। उनका कोई साहित्य आज प्राप्त नहीं है। महावीर और बुद्ध द्वारा लोकभाषा का माध्यम स्वीकार किये जाने के मुख्यतः दो कारण सम्भव हैं। एक तो यह हो सकता है उन्हें आर्य क्षेत्र में व्याप्त और व्याप्यमान याज्ञिक व कर्मकाण्डी परम्परा के प्रतिकूल अपने विचार बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय जन-जन तक सीधे (Directly) पहुँचाने थे, जो लोकभाषा द्वारा ही सम्भव था। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि संस्कृत, जिसके प्रति भाषात्मक उच्चता किवा पवित्रता का भाव था, जो याज्ञिक परम्परा और कर्मकाण्ड के पुरस्कर्ता पुरोहितों की भाषा थी, का स्वीकार उन्हें संकीर्णतापूर्ण लगा होगा, जो जन-मानस को देखते यथार्थ था। महावीर और बुद्ध द्वारा प्राकृतों के अपने उपदेश के माध्यम के रूप में अपनालिए जाने पर उन्हें (प्राकृतों का) विशेष वेग तथा बल प्राप्त हुआ। उनके समय में मगध (दक्षिण बिहार) एक शक्तिशाली राज्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। उत्तर-बिहार में वज्जिसंघ के कतिपय गणराज्य स्थापित हो चके थे और कौशल के तराई के भाग में भी ऐसी ही स्थिति थी, महावीर वज्जिसंग के अन्तर्वर्ती लिच्छवि गणराज्य के थे और बुद्ध कौशल के अन्तर्वर्ती मल्ल गणराज्य के । यहाँ से प्राकृतों के उत्तरोत्तर उत्कर्ष का काल गतिशील होता है। तब तक प्राकृत (मागधी) मगध साम्राज्य, जो मगध के चारों ओर दूर-दूर तक फैला हुआ था, के राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी । प्राकृतों का उत्कष केवल पूर्वीय भू-भाग तक ही सीमित नहीं रहा। वह पश्चिम में भी फैलने लगा। लोग प्राकृतों को अपनाने लगे। उनके प्रयोग का क्षेत्र बढ़ने लगा। बोलचाल में तो वहाँ (पश्चिम) भी प्राकृतें पहले से थी ही, अब वे धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्यान्य लोक-जनीन विषयों में भी साहित्यिक माध्यम का रूप प्राप्त करने लगी। वैदिक संस्कृति के पुरस्कर्ता और संस्कृत के पोषक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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