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आचारसयभाचाanaa श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य
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प्राकृत भाषा और साहित्य
गये हैं, वे पैशाची प्राकृत के क्षेत्र तथा अपभ्रंश के क्षेत्र की अनेकानेक बोलियों और उप-बोलियों के सूचक हैं।
प्राकृत के भिन्न-भिन्न रूपों या भाषाओं पर आगे विस्तार से विचार किया जायेगा। यहाँ तो केवल पृष्ठभूमि के रूप में सूचन-मात्र किया है ।
प्राकृतों का विकास : विस्तार-पृष्ठभूमि पूर्व और पश्चिम की संस्कृति तथा जीवन में प्राचीन काल से ही हम कुछ भेद पाते हैं। पश्चिम के कृष्ण और पूर्व के जरासन्ध जैसे राजाओं के पुराणप्रसिद्ध युद्धों की शृङ्खला इसकी परिचायक है। भारत में आने वाले आर्य पश्चिम में टिके, मध्यदेश में टिके, कुछ पूर्व में भी खदेड़ दिये गये । पर, शायद मगध तक उनका पहुँचना नहीं हुआ होगा। हुआ होगा तो बहुत कम । ऐसा प्रतीत होता है कि कोशल और काशी से बहुत आगे सम्भवतः वे नहीं बढ़े। अतः मगध आदि भारत के पूर्वीय प्रदेशों में वैदिक युग के आदिकाल में वैदिक संस्कृति के जो यज्ञ-याग प्रधान थी, चिन्ह नहीं प्राप्त होते हैं। ऐसा अनुमान है कि वैदिक संस्कृति मगध प्रभृति पूर्वी प्रदेशों में काफी बाद में पहँची, भगवान महावीर तथा बुद्ध से सम्भवतः कुछ शताब्दियाँ पूर्व ।
वेद-मूलक आर्य-संस्कृति के पहुँचने के पूर्व मगध आर्यों की दृष्टि से निद्य था। निरुक्तकार यास्क ने मगध को अनार्यों का देश कहा है। ऋग्वेद में कीकर शब्द आया है, जिसे उत्तरकालीन साहित्य में मगध का समानार्थक कहा गया है। ब्राह्मणकाल के साहित्य में भी कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट है कि तब तक पश्चिम के आर्यों का मगध के साथ अस्पृश्यता का-सा व्यवहार रहा था । शतपथ ब्राह्मण में पूर्व में बसने वालों को आसुरी प्रकृति का कहा गया है। आर्य सम्भवतः अनार्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे, जिसमें निम्नता या घृणा का भाव था।
यहाँ एक बात की ओर विशेष रूप से ध्यान देना होगा। पहले दल में भारत में आये मध्यदेश में बसे आर्य जब दूसरे दल में आये आर्यों द्वारा मध्यदेश से भगा दिये गये और वे मध्यदेश के चारों ओर विशेषतः पूर्व की ओर बस गये तो उनके भगाने वाले (बाद में दूसरे दल के रूप में आये हुए) आर्यों से वैचारिक दुराव रहा हो, यह बहत संभाव्य है। उनका वहाँ के मूल निवासियों से मेल-जोल बढ़ा हो, इसकी भी सहज ही कल्पना की जा सकती है। मेल-जोल के दायरे का विस्तार वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुआ हो, यों एक मिश्रित नवंश अस्तित्व में आया हो, जो सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से पश्चिम के आर्यों से दूर रहा हो। वैदिक वाङमय में प्राप्त व्रात्य शब्द सम्भवतः इन्हीं पूर्व में बसे आर्यों का, जो सामाजिक दृष्टि से पूर्व में बसने वाले मूल-निवासियों से सम्बद्ध हो चुके थे, द्योतक है। व्रात्य शब्द की विद्वानों ने अनेक प्रकार से व्याख्या की है। उनमें से एक व्याख्या यह है कि जो लोग यज्ञ-यागादि में विश्वास न कर व्रतधारी यायावर संन्यासियों में श्रद्धा रखते थे, व्रात्य कहे जाते थे। व्रात्यों के लिए वैदिक परम्परा में शुद्धि की एक व्यवस्था है या वे शुद्ध होना चाहते तो उन्हें प्रायश्चित्तस्वरूप शुद्धचर्य यज्ञ करना पड़ता । व्रात्य-स्तोम में उसका वर्णन है। उस यज्ञ को करने के अनन्तर वे बहिर्भूत आर्य वर्ण-व्यवस्था में स्वीकार कर लिए जाते थे।
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