Book Title: Prakrit Bhasha Udgam Vikas aur Bhed Prabhed
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 22
________________ २४ प्राकृत भाषा और साहित्य प्राकृत में संस्कृत के ख, घ, थ, तथा भ की तरह ध का भी ह होता है। जैसे-साधुः साहू, बधिरः बहिरो, बाधते-वाहइ, इन्द्रधनु = इन्द्रहणू, सभा-सहा ।। वैदिक वाङमय में भी ऐसा प्राप्त होता है। जैसे-प्रतिसंधायप्रतिसंहाय (गोपथ ब्राह्मण २.४) प्राकृत (मागधी को छोड़कर प्रायः सभी प्राकृतों) में अकारान्त पुलिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ओ होता है। जैसे--मनुषः माणसो, धर्मः धम्मो। एतत् तथा तत् सर्वनाम में भी विकल्प से ऐसा होता है। स: सो, एषः एसो। वैदिक संस्कृत में भी कहीं प्रथमा एकवचन में ओ दृष्टिगोचर होता है। जैसे--संवत्सरो अजायत (ऋग्वेद संहिता १०.१६०.२) सोचित् (ऋग्वेद संहिता १.१६१.१०-११) संस्कृत अकारान्त शब्दों में ङसि (पञ्चमी) विभिक्ति में जो देवात्, नरात धर्मात, आदि रूप बनते हैं, उनमें अन्त्य त् के स्थान पर प्राकृत में छः आदेश होते हैं। उनमें एक त का लोप भी है । लोप के प्रसंग को यों भी समझा जा सकता है कि पंचमी विभक्ति में एकवचन में (अकारान्त शब्दों में) आ प्रत्यय होता है । जैसे देवात् =देवा, नरात्=णरा, धर्मात् = धम्मा आदि । वैदिक वाङमय में भी इस प्रकार के कतिपय पञ्चम्यन्त रूप प्राप्त होते हैं। जैसे-उच्चातउच्चा, नीच्चात् =नीचा, पश्चात् = पश्चा। प्राकृत में पञ्चमी विभक्ति बहुवचन में भिस् के स्थान पर हि आदि होते हैं । जैसे देवेहि आदि । वैदिक संस्कृत में भी इसके अनुरूप देवेभिः ज्येष्ठेभिः गर्भारेभिः आदि रूप प्राप्त होते हैं। १. ख-घ-थ-ध भाम् ।।८।१११८७ स्वरातपरेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां ख घ थ ध भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । २. अतः से?ः ।।८।३।२ अकारान्तान्नाम्नः परस्य स्यादेः सेः स्थाने डो भवति । वैतत्तदः ।।८।३।३ एतत्तदोकारात्परस्य स्यादेः सेझै भवति । ४. स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिस्ङभ्यांभ्यस्ङसिभ्यांभ्यस्ङसोसाम्ङयोस्सुप् । अष्टाध्यायी ॥४१२ सु औ जस् इति प्रथमा । अम् औट शस् इति द्वितीया । टा भ्यां भिस् इति तृतीया । ङ भ्यां भ्यस् इति चतुर्थी । ङसि भ्यां भ्यस् इति पञ्चमी । डस् ओस् आम इति षष्ठी। डि ओस् सुप् इति सप्तमी। ङसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः ।।८।३।८ अतः परस्य डसे: त्तो दो दुहि हिन्तो लुक इत्येते षडादेशा भवन्ति । जैसे वत्सात वच्छतो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छाहि, वच्छाहिन्तो, वच्छा। ६. भिसो हि हि हि ।।८।३।७ अतः परस्य भिसः स्थाने केवल: सानुनासिकः, सानुस्वारश्च हिर्भवति। Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainerforary.org

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