Book Title: Prakrit Bhasha Udgam Vikas aur Bhed Prabhed
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 20
________________ आचार्यप्रवर अभिआपाय प्रवर अभिनय श्रीआनन्द प्राआगन्दा अन्य २२ प्राकृत भाषा और साहित्य - m से प्रकट है कि वे संभवतः अनार्य जाति के लोग थे। देवताओं के सेनापति और असरों के विजेता के रूप में स्कन्द हिन्दू-शास्त्रों में समाहत हैं। ऐसा अनुमान है कि आदिवासियों की विभिन्न जातियों को उन्होंने संगठित किया हो। महाभारतकार उन भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों का विस्तृत वर्णन कर देने के बाद उन्हें देश-भाषाओं में कुशल बतलाते हैं। आर्यों और अनार्यों के पारस्परिक सम्पर्क तथा साहचर्य से प्रादेशिक भाषाओं ने एक विशेष रूप लिया हो । संभवतः उन्हें ही यहाँ देशभाषा से संज्ञित किया हो। पण्डित हरगोविन्ददास टी० सेठ द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार की तमिल, कन्नड़, मुण्डा, आदि भाषाओं से देशी शब्दों के आने पर सन्देह करते हैं। उनके कथन का अभिप्राय है कि ऐसा तभी स्वीकार्य होता, यदि अनार्य भाषाओं में भी देशी शब्दों तथा धातुओं का प्रयोग प्राप्त होता। संभवत: ऐसा नहीं है। इस सम्बन्ध में एक बात और सोचने की है कि ये देशी शब्द अनार्य भाषाओं से ज्यों-के-त्यों प्रादेशिक (मुख्यतः मध्यदेश के चतु: पार्श्ववर्ती) प्राकृतों में आ गये, ऐसा न मानकर यदि यों माना जाए आर्य भाषाओं तथा उन विभिन्न प्रादेशिक प्राकृतों के सम्पर्क से कुछ ऐसे नये शब्द निष्पन्न हो गये जिनका कलेवर सम्पूर्णतः न अनार्य-भाषाओं पर आधृत था और न प्राकृतों पर ही। उन देशी शब्दों के ध्वन्यात्मक, संघटनात्मक स्वरूप के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । अस्तु, देशी शब्दों, देशभाषाओं या देशी भाषाओं के परिपार्श्व में इतने विस्तार में जाने का एक ही अभिप्राय था कि प्राकृत के उद्भव और विकास पर कुछ और प्रकाश पड़े। क्योंकि यह विषय आज संदिग्धता की कोटि से मुक्त नहीं हुआ है। वैदिक संस्कृत तथा प्राकृत का सादृश्य प्राकृतों अर्थात् साहित्यिक प्राकृतों का विकास बोलचाल की जन-भाषाओं, दूसरे शब्दों में असाहित्यिक प्राकृतों से हुआ, ठीक वैसे ही जैसे वैदिक भाषा या छन्दस् का। यही कारण है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत में कुछ ऐसा सादृश्य खोज करने पर प्राप्त होता है, जैसा प्राकृत और लौकिक संस्कृत में नहीं है। निम्नांकित उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है संस्कृत ऋकार के बदले प्राकृत में अकार, आकार, इकार तथा उकार होता है। ऋकार के स्थान में उकार की प्रवृत्ति वैदिक वाङमय में भी प्राप्त होती है । जैसे ऋग्वेद १,४६,४ में कृत के स्थान । ONNI aika १. ऋतोत् ।।८।१।१२६ । आदेऋकारस्य अत्वं भवति ।-सिद्ध हैमशब्दानुशासन २. आत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा ॥८।१।१२७ । एषु आदेऋत आद् वा भवति । ३. इत्कृपादौ ।।८।१।१२८ कृपा इत्यादिषु शब्देषु आदेऋत इत्वं भवति । उहत्वादौ ।।८।१।१३१ ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आदेत उद् भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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