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प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद - प्रभेद
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गया है और उस (सोची हुई शब्दावली ) का प्राकृत में अनुवाद मात्र कर दिया गया है । आश्चर्य तब होता है, जब नाटकों के कई प्रकाशनों में यहाँ तक देखा जाता है कि प्राकृत भाग की संस्कृत - छाया तो मोटे टाइप में दी गई है और मूल प्राकृत छोटे टाइप में । अभिप्राय स्पष्ट है, प्राकृत को सर्वथा गौण समझा गया । मुख्य पठनीय भाग तो उनके अनुसार संस्कृत-छाया है ।
इन नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतें स्वाभाविक कम प्रतीत होती हैं, कृत्रिम अधिक । प्राकृतों को नाटकों में रखना नाट्यशास्त्रीय परम्परा का निर्वाहमात्र रह गया । सारांश यह है कि जहाँ साहित्य - सर्जन का प्रसंग उपस्थित होता, सर्जक का ध्यान सीधा संस्कृत की ओर जाता ।
देश्य शब्दों का उद्गम
देश्य भाषाओं के उद्गम स्रोत के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अनेक दृष्टियों से विचार किया है । उनमें से कइयों का यों सोचना है, जैसा कि यथाप्रसंग चर्चित हुआ है, आर्यों का पहला समुदाय जो पञ्चनद व सरस्वती दृषद्वती की घाटी से होता हुआ मध्यदेश में आबाद हो चुका था, जब बाद में आने वाले आर्यों के दूसरे दल द्वारा वहाँ से खदेड़ दिया, तब वह मध्यदेश के चारों ओर बस गया । पहला समूह मुख्यत: पञ्चनद होता हुआ मध्यदेश में रहा, जहाँ वैदिक वाङमय की सृष्टि हुई ।
जो आर्य मध्यदेश के चारों ओर के भूभाग में रहते थे, उनका वाग्व्यवहार अपनी प्रादेशिक प्राकृतों में चलता था । प्रदेशभेद से भाषा में भिन्नता हो ही जाती है । इसलिए मध्यदेश में रहने वाले आर्यों की प्राकृतें किन्हीं अंशों में मिलती थीं, किन्हीं में नहीं । मध्यदेश के आर्यों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ छन्दस् के अधिक निकट रही होंगी क्योंकि छन्दस् उसी भू-भाग की या उसके आस-पास की किसी प्राक्तन लोक भाषा का परिनिष्ठित रूप थी । मध्यदेश के बाहर की लोक भाषाएँ या प्राकृतें अपने प्रादेशिक भेद तथा वैदिक परम्परा से असंलग्नता के कारण छन्दस् से अपेक्षाकृत दूर थीं । प्राकृत साहित्य में ये देश्य शब्द गृहीत हुए हैं, उनका स्रोत सम्भवतः ये ही मध्यदेश के बाहर की प्रादेशिक भाषाएँ हैं । क्योंकि इन लोक-भाषाओं का कोई भी प्राक्तन या तत्कालीन रूप वैदिक भाषा का आधार या उद्गम स्रोत नहीं था । अतः इनसे आये हुए शब्दों के जो देश्य नाम से अभिहित किये, अनुरूप संस्कृत में शब्द नहीं मिलते । देशभाषा : व्यापकता
देशी भाषा का देशभाषा बहुत प्राचीन नाम है । प्राचीन काल में विभिन्न प्रदेशों की लोकभाषाएँ या प्राकृतें देशी भाषा या देशभाषा के नाम से प्रचलित थीं । महाभारत में स्कन्द के सैनिकों और पार्षदों के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख है—
"वे सैनिक तथा पार्षद विविध प्रकार के चर्म अपने देह पर लपेटे हुए थे । वे अनेक भाषा-भाषी थे । देश भाषाओं में कुशल थे तथा परस्पर अपने को स्वामी कहते थे ।”
१. नानाचर्मभिराच्छन्ना नानाभाषाश्च भारत ।
कुशला देशभाषाषु जल्पन्तोऽन्योन्यमीश्वराः ॥
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आचार्य प्रव श्री आनन्द
- महाभारत, शल्य पर्व, ४५, १०३
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आयायप्रवर अभिनंदन
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