Book Title: Prakrit Bhasha Udgam Vikas aur Bhed Prabhed
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 12
________________ आर्य प्रव अभि 性 ST62 १४ प्राकृत भाषा और साहित्य T CUPPECE) आयार्यप्रव श्री आनन्द ऋषि राजशेखर तथा वाक्पति के कथन पर गौर करना होगा । वे जैन परम्परा के नहीं थे, वैदिकपरम्परा के थे । जैन लेखक प्राकृत को अपने धर्मशास्त्रों की भाषा मानते हुए अपनी परम्परा के निर्वाह अथवा उसका बहुमान करने की दृष्टि से ऐसा कह सकते हैं, पर जहाँ अजैन विद्वान् ऐसा कहते हैं, वहाँ अवश्य कुछ महत्त्व की बात होनी चाहिए । राजशेखर और वाक्पति का कथन निःसन्देह प्राकृत के अस्तित्व, स्वरूप आदि के यथार्थ अंकन की दृष्टि से है । आचार्य सिद्धर्षि का अभिमत ग्रन्थ संस्कृत वाङ् मय के महान् कथा-शिल्पी आचार्य सिद्धर्षि ने अपने “ उपमितिभवप्रपञ्चकथा' नामक महान् संस्कृत कथा-ग्रंथ में भाषा के सम्बन्ध में चर्चा की है, जो प्रस्तुत विषय में बड़ी उपयोगी है । वे लिखते हैं संस्कृत और प्राकृत — ये दो भाषाएँ प्रधान हैं। उनमें संस्कृत दुर्विदग्ध जनों के हृदय में स्थित है । प्राकृत बालकों के लिए भी सद्बोधकर है तथा कर्णप्रिय है । फिर भी उन्हें ( दुर्विदग्ध जनों को ) प्राकृत रुचिकर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में जब उपाय है (संस्कृत में ग्रन्थ रचने की मेरी क्षमता है) तब सभी के चित्त का रञ्जन करना चाहिए । बात को ध्यान में रखते हुए मैं संस्कृत में यह इसी रचना करूँगा । " १. संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमर्हतः । तत्रापि संस्कृता तावदुर्विदग्ध हृदि स्थिता ।। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला । तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते || उपाये सति कर्तव्यं सर्वेषां चितरञ्जनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ॥ Jain Education International जैसा कि उद्धरण से स्पष्ट है, आचार्य सिद्धर्षि संस्कृत को दुर्विदग्ध लोगों के हृदय में स्थित मानते हैं । प्राकृत, उनकी दृष्टि में बालकों द्वारा भी समझे जा सकने योग्य है और कर्णप्रिय है । कोश के अनुसार दुर्विदग्ध' का अर्थ पण्डितंमन्य या गर्विष्ठ है । परंपरया यह शब्द श्रयान् अर्थ में प्रयुक्त नहीं है । इसका प्रयोग दमिप्ता या अहंकारिता जैसे कुत्सित अर्थ में है । यद्यपि आचार्य सिद्धर्षि का यह विश्वास था कि प्राकृत सर्वलोकोपयोगी भाषा है पर वे यह भी मानते थे कि पाण्डित्यभिमानी जनों को प्राकृत में रचा ग्रन्थ रुचेगा नहीं । कारण साफ है, उनका समय (१०वीं ११वीं शती) वैसा था, जिसकी पहले चर्चा की है, जब प्राकृत का प्रयोग लगभग बन्द हो चुका था और ग्रन्थकार सिद्धान्ततः प्राकृत की उपयोगिता मानते हुए भी संस्कृत की ओर झुकने लगे थे। ऐसा करने में उनका ऐसा आशय प्रतीत २. ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि नरं न रञ्जयति । "" - उपमितिभवप्रपञ्चकथा, प्रथम प्रस्ताव ५१, ५३ - भर्तृहरिकृत नीतिशतक ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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