Book Title: Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 4
________________ प्रस्तावना यह संसार अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा इसीलिए संसार को अनादि अनंत कहा जाता है। इसी प्रकार जैन धर्म के संबंध में भी समझना चाहिए। जैन धर्म भी अनादि काल से है और अनंत काल तक रहेगा। हाँ भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में काल का परिवर्तन होता रहता है, अतएव इन क्षेत्रों में समय समय पर धर्म का विच्छेद हो जाता है, पर महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा जैन धर्म लोक की भांति अनादि अनंत एवं शाश्वत है। भरत क्षेत्र ऐरावत क्षेत्र में प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में २४-२४ तीर्थंकर होते हैं । तीर्थंकर भगवंतों के लिए विशेषण आता है, "आइच्चेसु अहिर्यं पयासयरा" यानी सूर्य की भांति उनका व्यक्तित्व तेजस्वी होता है वे अपनी ज्ञान रश्मियों से विश्व की आत्माओं को अलौकिक करते हैं। वे साक्षात् ज्ञाता द्रष्टा होते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर केवलज्ञान केवलदर्शन होने के बाद चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं और वाणी की वागरणा करते हैं। उनकी प्रथम देशना में ही जितने गणधर होने होते हैं उतने हो जाते हैं। तीर्थंकर प्रभु द्वारा बरसाई गई कुसुम रूप वाणी को गणधर भगवंत सूत्र रूप में गुंथित करते हैं जो द्वादशांगी के रूप में पाट परंपरा से आगे से आगे प्रवाहित होती रहती है। जैन आगम साहित्य जो वर्तमान में उपलब्ध है, उसके वर्गीकरण पर यदि विचार किया जाय तो वह चार रूप में विद्यमान है - अंग सूत्र, उपांग सूत्र, मूल सूत्र और छेद सूत्र । अंग सूत्र जिसमें दृष्टिवाद जो कि दो पाट तक ही चलता है उसके बाद उसका विच्छेद हो जाता है, इसको छोड़ कर शेष ग्यारह आगमों का (१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानाङ्ग ४. समवायाङ्ग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ७. उपासकर्दशाङ्ग ८. अन्तकृतदशाङ्ग ९. अणुत्तरौपपातिकदशा १० प्रश्नव्याकरण ११. विपाक सूत्र ) अंग सूत्रों में समावेश माना गया है। इनके रचयिता गणधर भगवंत ही होते हैं। इसके अलावा बारह उपांग (१. औपपातिक २. राजप्रश्नीय ३. जीवाभिगम ४. प्रज्ञापना ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६. चन्द्र प्रज्ञप्ति ७. सूर्य प्रज्ञप्ति ८. निरयावलिका ९. कल्पावतंसिया १०. पुष्पिका ११. पुष्प चूलिका १२. वष्णिदशा ) चार मूल (१. उत्तराध्ययन २. दशवैकालिक ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोग द्वार) चार छेद (१. दशाश्रुतस्कन्ध २. वृहत्कल्प ३. व्यवहार सूत्र ४. निशीथ सूत्र ) और आवश्यक सूत्र । जिनके रचयिता दस पूर्व या इनसे अधिक के ज्ञाता विभिन्न स्थविर भगवंत हैं । प्रस्तुत पत्रवणा यानी प्रज्ञापना सूत्र जैन आगम साहित्य का चौथा उपांग है। संपूर्ण आगम साहित्य में भगवती और प्रज्ञापना सूत्र का विशेष स्थान है। अंग शास्त्रों में जो स्थान पंचम अंग भगवती ( व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र का है वही स्थान उपांग सूत्रों में प्रज्ञापना सूत्र का है। जिस प्रकार पंचम अंग शास्त्र व्याख्याप्रज्ञप्ति के लिए भगवती विशेषण प्रयुक्त हुआ है उसी प्रकार पन्नवणा उपांग सूत्र के लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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