Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 13
________________ १२ प्रा० जै० इ० चौथा भाग (११) सौराष्ट्र (सोरठ) प्रान्त । इस प्रान्त में प्राचीन काल से ही जैनधर्म प्रचलित है। इस प्रान्तमें दो बड़े प्रसिद्ध तीर्थराज हैं जिनको जैनियों का बच्चा बच्चा तक जानता है। उनके परम पुनीत नाम शत्रुञ्जय और गिरनार तीर्थ हैं । इस प्रान्त की वल्लभी नगरी के प्रसिद्ध नरेश शिलादित्य के राज्यकाल में जैनधर्म इस प्रान्त के कोने कोने में फैल गया था तथा इसकी दशा बहुत उन्नत थी। आचार्य श्री देवर्द्धि गणिने वल्लभी नगरी में एक विराट सम्मेलन का आयोजन किया था तथा आगमों को पुस्तकरूपमें लिखाने का आवश्यक एवं समयोचित कार्य किया था। ऐसे ऐसे परोपकारी महात्माओं ही का हमारे पर परम अनुग्रह है कि जिनकी महिनत का हम लाभ उठाते हुए अर्वाचीन आगमान्तर्गत साहित्य देखते हैं। पंचासर का राजवंश जैनधर्मोपासक था तथा पाटण के चांवडा वंशी भी चिरकाल से जैनी थे। महाराजा सिद्धराज जयसिंह तो आचार्य हेमचन्द्रसूरी के परम भक्त थे। महाराजा कुमारपाल तो अहन धर्मोपासक ही नहीं वरन् बड़ा परिश्रमी और जैनधर्म प्रचारक था। इसने जैनधर्म की उन्नति के हित अपना सर्वस्व तक अर्पण कर दिया था। इसके बनाए हुए अनेक जिन मन्दिर तथा शिलालेख वृहत् संख्या में अब तक प्रस्तुत हैं। इन मन्दिरों पर की ध्वजाएँ आज तक कुमारपाल की कामनीय कीर्ति को बतला रही हैं तथा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करती हैं कि यदि किसी के पास धन हो तो वह उसका इस प्रकार सदुपयोग करे जिसके द्वारा कि अनेक भव्य जीवों का आत्मकल्याण हो। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक तो जैनधर्म सौराष्ट्र प्रान्त को देदीप्यमान कर रहा था । भीनमाल के नरेश

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