Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 11
________________ प्रा० जै० इ० चौथा भाग पश्चात् आचार्य श्री कक्वसूरिजी ने उस नींव को दृढ़ किया । बहुत परिश्रम के पश्चात् सिन्ध प्रान्त में सर्वत्र जैनी ही जैनी दृष्टिगोचर होने लगे । सिन्ध प्रान्त के कोने कोने में जैन धर्म का उपदेश सुनाया गया तथा कुंड के झुंड जैनी जिनशासन की शीतल छाया में शान्ति पूर्वक रहते हुए अपनी आत्मा का उत्थान करने लगे। बाद में इनके शिष्य समुदाय ने भी इस प्रान्त में विचरण किया तथा जैन धर्मावलम्बियों की संख्या निरन्तर वृद्धिगत होती रही । उपकेश गच्छ चरित्र से विदित हुआ है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आचार्य श्री कक्वसूरि के समय पर्यन्त केवल एक उपकेश गच्छोपासकों की देखरेख में ५०० जैन मन्दिर विद्यमान थे, इससे अनुमान हो सकता है कि उन मन्दिरों के उपासक भी बड़ी विशाल संख्या में थे । १० उस समय के पश्चात् अत्याचारी यवनों ने जैनियों को बहुत सताया और उन्हें इसी कारण से इस प्रान्त को परित्याग करना पड़ा । वे आसपास के प्रान्तों में यवनों के अत्याचारों से ऊब कर जा बसे । इस प्रान्त में विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक तो जैनियों की गहरी आबादी थी । इसका प्रमाण यह है कि वंशावलियों में लिखा हुआ पाया गया है कि सिन्ध निवासी महान् धनी लुगाशाह नामक सेठ अपने कुटुम्ब और अन्य लोगों के साथ मरुधर प्रान्त में आया था । जिस प्रान्त में ऐसे ऐसे धनी और मानी सेठ रहते थे आज उस प्रान्त में केवल मारवाड़ और गुजरात से गये हुए कतिपय लोग जैन ही पाये जाते हैं । इसका वास्तविक कारण यह था कि जैन धर्म के उपदेशकों का पूरा अभाव था। आम तौर से जनता सरल परिणाम वाली होती है जब कोई सत्य मार्ग बतानेवाला नहीं होता है तो यह स्वाभाविक ही है कि वह भटक कर अन्य रास्ते का अवलम्बन करले । इस

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