Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ प्रा० जे० इ० चौथा भाग महाराज का धाम अति प्राचीन एवं प्रख्यात है। चित्तौड़ के राणा भी जैन धर्म का उचित आदर करते थे । इनके वंश में आज तक इस धर्म को उच्च स्थान मिलता आया है । राव रिडमलजी तथा योधाजी के समय में बहुत से मारवाड़ निवासी जैन लोग मेवाड़ में जा बसे थे । उन लोगों का सम्बन्ध कई वर्षों तक मारवाड़ से रहा है । श्री सिद्धगिरि के अन्तिम उद्धारक स्वनाम धन्य कर्माशाह ने इसी प्रान्त में जन्म लिया था । धन्यधरा मेवाड़ ! जो अनेक दानी मानी जैन धर्मोपासक नररत्नों को जन्म देकर कृत्याकृत्य हुई | वीर भामाशाह इसी धरा का सपूत था कि जिसने महाराणा प्रताप को पूर्व साहस और असंख्य द्रव्य भेंट कर भी जननी जन्म भूमि (मेवाड़ ) को स्वतन्त्र रक्खी । धन्य सूराशाह को जिसने भीषण दुकाल में मेवाड़ वासियों को अन्न दे प्राण बचाये | धन्य है आशाशाह को कि मुग़लों के विकट भय के समय महाराणा उदयसिंह को बचपन से अपने यहाँ रक्खा इत्यादि अनेक जैन वीरों ने मेदपाट में जैन धर्म को दीपाया और प्रचार किया । १८ (१७) मारवाड़ प्रान्त । यह प्रान्त जैन जातियों का उत्पत्ति स्थान है। आचार्य स्वयंप्रभसूरि तथा आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने इस प्रान्त में पदार्पण कर वाममार्गियों के अत्याचार रूपी गढ़ों पर आक्रमण कर उन्हें दूर किया तथा महाजन वंश की स्थापना की थी उस समय से चिरकाल तक तो इस प्रान्त में जैनधर्म राष्ट्रधर्म के रूप में रहा तथा उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर इसकी पताका फहराने लगी । किन्तु विक्रम की छठी शताब्दी में यहाँ के निवासी राज्य कष्ट से दुःखी हो इस प्रान्त को छोड़ कर आस पास के अन्य प्रान्तों में जाकर वास करने लगे । यह

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34