Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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जैन धर्म का प्रचार
चारों ओर जनता की पुकार होने पर, जगह जगह तिरस्कार होने पर भी वे गुर्जर को नहीं छोड़ते हैं। किसी समाज के साधुओं में ऐसा प्रतिबन्ध शायद ही हो कि जितना मूर्त्तिपूजक समुदाय के साधुओं में है । दूसरा मूर्तिपूजक समुदाय दिन प्रतिदिन कमती होता जा रहा है और इन पर प्रतिदिन धर्म खर्चा का वजन बढ़ता ही जाता है | करीबन चार लाख की संख्या में धनाढ्य मनुष्य तो अँगुलियों पर गिन जायँ उतने ही हैं । उन पर ४०००० मन्दिरों की पुजाई का एक वर्ष के ढाई करोड़ रुपये और तीर्थयात्रा, पूजा, प्रतिष्ठा, उपधान, उजमना, नये मन्दिर, जीर्णोद्वार, विद्या प्रचार, वगैरह में कम से कम ढाई करोड़ गिना जाय तो एक वर्षका पाँच किरोड़ का खर्चा तो केवल धर्मदाखाता का ही है । इसमें जो लाखों रुपये देने वाले थे वे उल्टे खिलाफ़ बनते जा रहे हैं । इधर व्यपार की हालत गिरती जा रही है आर्थिक समस्या इतनी विकट बनती जा रही है इस पर भी हमारे समाज नेता जो वे अपने को कर्त्ताहर्त्ता समझ बैठे हैं उनकी आँख नहीं खुलती है यह ही हमारा भविष्य स्पष्ट बतला रहा है ।
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पूज्यवर आचार्यों, उपाध्यायों, पन्यासियों और मुनिवरों गुर्जर गुफा से मुँह निकाल प्रभातीय प्रकाश की ओर देखो आपके शिर पर समाज की कितनी जोखमदारी है । आपके इशारे मात्र से समाज लाखों किरोड़ों द्रव्य खर्च कर रही है आप चाहो वह साथ देने को कटिबद्ध तैयार है । आपके अन्दर शक्ति है, त्याग है, विद्वत्ता है, साहस है यदि आप चाहो तो दूसरों के बजाय हजार गुना कार्य कर सकते हो । शुद्धि और संगठन आपके घर की वस्तुएँ हैं आपके ही पूर्वजों ने इसको सब से पहले प्रचलित की थी आज उसी शुद्धि का लाभ अन्य लोग ले रहे हैं और आप अपनी आँखों से देख रहे हो क्या आप इसको सहन कर