Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 23
________________ उपसंहार उपरोक्त लेख से आप बखूबी समझ गये होंगे कि पूर्व जमाने में जैन आचार्य व मुनिवर अपना धर्म प्रचार करने में किस प्रकार कटिबद्ध थे वे उपसर्ग और परिसह तो क्या पर धर्म के लिये बलिदान होने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे न तो उनको सुन्दर उपाश्रय की दरकार थी और न चाह दूध तथा मनोज्ञ आहार पानी को परवाह थी वे एकाद प्रान्त को ही अपना विहार क्षेत्र नहीं समझते थे पर देश में और प्रदेश में बड़े ही उत्साह से विहार करते थे। आज की भाँति उस जमाने में साधन भी नहीं थे । उन अत्याचारियों ने जैनधर्म के प्रचारकों पर कहाँ तक जुल्म गुजारा ? उन कठिनाइयों का उन धर्म वीरों ने किस प्रकार सहन किया जिसको सुनते ही हमारे जैसों का हृदय थरथर कम्पने लग जाता है पर उन धर्म प्रचारकों ने उस ओर लक्ष नहीं देकर अपने कार्य को रफ्तार से बढ़ाते ही गये जिसका परिणाम यह आया कि उस समय विश्व में जैनधर्म का झंडा फहरा रहा था इस मशीन का कार्य पांच पच्चीस वर्ष नहीं पर सैकड़ों वर्ष बड़ी तेजी से चला और जैन संख्या चालीस करोड़ तक पहुंच गई । भारत के अलावा यूरोप और अमेरिका तक जैनधर्म का डंका बज रहा था पर इस मशीन का कार्य चैत्यवासियों के साम्राज्य में बहुत शिथिल पड़ गया था उन्होंने पुद्गलानदी-शिथलाचारी ग्रामोग्राम में मठ बना के अपनी अपनी अनुकूलता देख स्थिरवास कर दिया था नया जैन बनाना तो दूर रहा पर जो थे उन का भी रक्षण नहीं कर सके बीच बीच में

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