Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 16
________________ जैन धर्म का प्रचार १५ वंश तथा कलब वंश इत्यादि के सब राजा केवल जैन धर्मोपासक ही नहीं वरन् बड़े भारी प्रचारक थे। ये बातें शिलालेखों से प्रकट हुई हैं । किन्तु आज पर्यन्त वह दशा नहीं रही अब से बहुत पहले लगभग विक्रम की बारहवीं शताब्दी में वासवादत्त ने इस प्रान्त में लिङ्गायत मत की नींव डाली; उस दिन से जैनियों की संख्या निरन्तर घटती रहीं। ऐसे अनेक घृणित और निष्ठुर उपाय किये कि जिनका वर्णन करते लेखनी काँपती है-सहस्रों जैन मुनि कत्ल किये गये केवल इसी कारण कि वे जैन धर्मोपासक थे। अत्याचार की कोई सीमा न थी। जैनियों को इस तरह के बिना कारण दण्ड दिये गये कि उन्हें विवश होकर अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा। यही सिद्धान्त चला Might is right जिसकी लाठी उसकी भैंस, जो अपने जैन धर्म पर पक्के रहे उन्हें अपना प्राण परित्यागन करना पड़ा। इसके फल स्वरूप उस प्रान्त में जैनियों की आबादी शीघ्र ही लुप्त हो गई । किन्तु आज भी गये गुजरे जमाने में महाराष्ट्र प्रान्त में जहाँ तहाँ जैन तीर्थ एवं जैन गुफाऐं विपुल संख्या में विद्यमान हैं । इस से स्पष्ट प्रकट होता है कि जैनियों का अतीत तो अति अति उज्जवल एवं उत्तम था । अर्वाचीन काल में तो इने गिने जैनी इस प्रान्त में दृष्टिगोचर होते हैं इनके सिवाय सब मारवाड़ तथा गुजरात प्रान्त से गये हुए हैं। जिस प्रान्त में प्रचुरता से जैनी पाए जाते थे वहाँ आज केवल आ कर बसे हुए जैनी मात्र प्रायः दिखाई देते हैं। (१३) अवन्ती प्रदेश । इस प्रान्तः की राजधानी उज्जैन में जिस समय त्रिखण्डभुक्ता महाराजा सम्प्रति राज्य कर रहा था उस समय इस प्रान्त में जैन धर्म का अविच्छन्न साम्राज्य प्रसारित था। आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरजीने महाराजा

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