Book Title: Paumchariyam Part 01 Author(s): Parshvaratnavijay Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan View full book textPage 6
________________ आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजय संपादित पूर्वसंस्करण का सम्पादकीय किञ्चित् विद्वद्वर डॉ. हर्मन जेकोबीद्वारा सम्पादित पउमचरियां हमने 'संघवी पाडा जैन ज्ञानभण्डार - पाटण' गत क्रमाङ्क ३७१की सं. १४५८ में लिखित ताड़पत्रीय प्रतिके साथ आजसे करीब ४५ वर्ष पूर्व मिलान करके रखा था । इसके बाद हमारे अपने संग्रहगत दो काजकी प्रतोंके साथ भी मिलान किया था. इस तरह इन तीनों प्रतिओंके आधारपर डॉ. जेकोबीके सम्पादनका संशोधन 'प्रत्यन्तरे' ऐसा सङ्केत करके पाठभेदोंकी नोंध लेकर किया था, किन्तु उस समय हमारी यह कल्पना नहीं थी कि हमें इसका पुनः सम्पादन करना होगा । अतएव हमने पाठभेदोंके साथ प्रतिओंके सङ्केतकी नोंध नहीं रखी थी । किन्तु सङ्केत न होनेके कारण संशोधनमें कोई क्षति नहीं रहेगी, एसा मानकरके जब प्राकृत टेक्ष सोसायटीने इसे शीघ्र प्रकाशित करनेका निर्णय किया तब हमने अपनी संशोधित मुद्रित प्रति दे दी और उसका मुद्रण भी समाप्त हो गया । इसके बाद ‘श्रीजिनभद्रसूरि जैन ज्ञानभंडार - जेसलमेर' की वि० १३वीं शताब्दिमें लिखी गइ ताड़पत्रीय प्रतका पता लगा, तब हमें मालुम हुआ कि इस प्रतके उपयोगके विना 'पउमचरिय'का सम्पादन पूर्णशुद्धिकी दृष्टिसे अपूर्ण ही रहेगा अतएव श्रीनगीनभाईको जेसलमेर भेजकर उक्त प्रतिसे पउमचरियका मिलन करके पाठभेदोंकी नोंध ली गई । अब उन पाठोमेंसे जो मूलमें ही देने योग्य है और जिन पाठोंकी शुद्धि इस प्रतिसे होती है उन सबकी सूचना दूसरे खण्डमें परिशिष्टके रूपमें दे दी जायगी तथा पूर्वोक्त तीनों प्रतोंके भी पाठान्तरोंका विवेक परिशिष्टोमें दे दिया जायगा । इतना हो जानेसे यह सम्पादन पूर्ण होगा । इस कार्यमें तथा पउमचरियके विविध परिशिष्टोके कार्य में अतिविलम्ब होगा, एसा मानकर प्रस्तुत प्रथम खण्डका प्रकाशन रोक रखना हमने उचित नहीं समझा है । इस ग्रन्थका हिन्दि अनुवाद हो जानेसे अभ्यासिओंको इसके समझनेमें भी सुविधा होगी । हमारे निजी संग्रह, जो आज श्रीलालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृतिविद्यामंदिर-अहमदाबाद को समर्पित है, की जो दो हस्तप्रतिओंका यहाँ पाठ भेद दिया जा रहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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