Book Title: Pati Patni Ka Divya Vyvahaar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 34
________________ ५४ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार यह तो सूई और चुंबक में होती है वैसी आसक्ति है। उसमें प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। प्रेम होता ही नहीं किसी जगह। यह तो सूई और चुंबक के खिंचाव को लेकर तुम्हें ऐसा लगता है कि मुझे प्रेम है, इसलिए मैं खिंचता हूँ। पर वह प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। ज्ञानीपुरुष का 'प्रेम' ही प्रेम कहलाता है। _ इस दुनिया में शुद्ध प्रेम ही परमात्मा है। उसके सिवा दूसरा परमात्मा दुनिया में कोई हुआ नहीं है और होगा भी नहीं। और वहाँ दिल ठहरता है और तब दिलावरी के काम होते हैं। वर्ना दिलावरी के काम नहीं होते। दो प्रकार से दिल लगता है। अधो गति में जाना हो तब किसी स्त्री में दिल लगता है और उर्ध्व गति में जाना हो तब ज्ञानीपुरुष में दिल लगता है। और वे तो तुम्हें मोक्ष में ले जाएंगे। दोनों जगह दिल की जरूरत पड़ेगी, तब दिलावरी प्राप्त होती है। अर्थात् जिस प्रेम में क्रोध-मान-माया-लोभ कुछ भी नहीं, जो प्रेम समान, एकरूप रहता है, ऐसा शुद्ध प्रेम देखें तब मनुष्य के दिल में ठंडक होती है। मैं प्रेम स्वरूप हो गया हूँ। उस प्रेम में ही तुम मस्त हो जाओगे तो जगत भूल ही जाओगे, फिर तुम्हारा संसार अच्छा चलेगा, आदर्शरूप से चलेगा। शादी अर्थात् 'प्रोमिस टु पे' १९४३ में हीराबा की एक आँख चली गई। उन्हें झामर का दर्द था। डॉक्टर झामर का इलाज करने गए तब आँख पर असर हुआ और उसे नुकसान हुआ। इसलिए लोगों के मन में हुआ कि 'नया दूल्हा' तैयार हुआ। फिर से शादी करवाओ, ब्याहो। कन्याएँ बहुत थी और कन्या के माता-पिता की इच्छा ऐसी कि कैसे भी करके, उसे कुएँ में डालकर भी ठिकाने लगायें। उस समय भादरण के एक पाटीदार आए। उनके साले की लड़की पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार होगी, इसलिए आए थे। मैंने कहा, 'क्या है आपको?' तब वे कहने लगे, 'यह आपके साथ ऐसा हुआ?' अब उन दिनों १९४४ में मेरी उम्र ३६ साल की। तब मैंने कहा, 'क्यों आप ऐसा पछने आए हो?' तब उसने कहा, 'एक तो हीराबा की आँख गई, दूसरे बच्चे भी नहीं।' मैंने कहा, 'प्रजा नहीं है पर मेरे पास कोई बरोडा 'स्टेट' (राज्य) भी नहीं है कि मुझे उसको देना है। स्टेट होता तो लड़के को देते। यह कोई एकाध झोंपड़ा है और थोड़ी जमीन है, जो हमें किसान ही बनाये न! अगर स्टेट (राज्य) होता तो मानो ठीक था।' फिर मैंने उनसे कहा कि 'अब आप किस लिए यह कहते हो? और हीराबा को तो हमने प्रोमिस किया है, शादी की तब। इसलिए एक आँख गई तो क्या, दूसरी जाए तब भी हाथ पकड़कर रास्ता दिखाऊँगा।' प्रश्नकर्ता : मेरी शादी होने के बाद हम दोनों एक-दूसरे को पहचान गये हैं और लगता है कि पसंद में भूल हो गई है। दोनों का स्वभाव आपस में मेल नहीं खाता। अब दोनों में मेल कैसे हो और किस प्रकार हो? क्या करने से सुखी हो सकते हैं? दादाश्री : यह आप जो कहते हो, उसमें एक वाक्य भी सत्य नहीं है। पहला वाक्य, शादी होने के बाद दोनों व्यक्ति एक-दूसरे को जानते हैं, पर नाम की भी पहचान नहीं है। अगर पहचान होती तो यह झंझट ही नहीं होती। ज़रा भी जानते नहीं हो। मैंने तो केवल बुद्धि के डिवीज़न (विभाजन) से सारे मतभेद समाप्त कर दिये थे। पर हीराबा की पहचान मझे कब हई? मुझे साठ साल हुए तब हीराबा की पहचान हुई! १५ साल का था तब शादी की, ४५ साल तक उसका निरीक्षण करता रहा तब जाकर मुझे पहचान हुई कि वे ऐसी हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान होने के बाद पहचाना? दादाश्री : हाँ, ज्ञान होने के बाद पहचाना। वर्ना पहचान ही नहीं

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