Book Title: Parshwanath ki Virasat
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 2
________________ जैन धर्म और दर्शन याकोबी द्वारा पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता स्थापित होते ही विचारक और गवेषक को उपलब्ध जैन आगम अनेक बातों के लिए ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व के जान पड़े और वैसे लोग इस दृष्टि से भी आगमों का अध्ययन-विवेचन करने लगे। फलतः कतिपय भारतीय विचारकों ने और विशेषतः पाश्चात्य विद्वानों ने उपलब्ध जैन आगम के आधार पर अनेकविध ऐतिहासिक सामग्री इकट्ठी की और उसका यत्र-तत्र प्रकाशन भी होने लगा । अब तो धीरे-धीरे रूढ़ और श्रद्धालु जैन वर्ग का भी ध्यान ऐतिहासिक दृष्टि से श्रुत का अध्ययन करने की ओर जाने लगा है। यह एक सन्तोष की बात है। प्रस्तुत लेख में उसी ऐतिहासिक दृष्टि का आश्रय लेकर विचार करना है कि, भगवान् महावीर को जो आचार-विचार की आध्यात्मिक विरासत मिली वह किस. किस रूप में मिली और किस परंपरा से मिली ? इस प्रश्न का संक्षेप में निश्चित उत्तर देने के बाद उसका स्पष्टीकरण क्रमशः किया जाएगा। उत्तर यह है कि, महावीर को जो श्राध्यात्मिक विरासत मिली है, वह पार्श्वनाथ की परंपरागत देन है। वह विरासत मुख्यतया तीन प्रकार की है—(१) संघ (२) प्राचार और (३) श्रुत । यद्यपि उपलब्ध अागमों में कई अागम ऐसे हैं कि जिनमें किसी न किसी रूप में पार्श्वनाथ या उनकी परंपरा का सूचन हुआ है। परन्तु इस लेख में मुख्यतया पाँच अागम, जो कि इस विषय में अधिक महत्त्व रखते हैं, और जिनमें अनेक पुरानी बातें किसी न किसी प्रकार से यथार्थ रूप में सुरक्षित रह गई हैं, उनका उपयोग किया जाएगा। साथ ही बौद्ध पिटक में पाए जानेवाले संवादी उल्लेखों का तथा नई खोज करनेवालों के द्वारा उपस्थित की गई सामग्री में से उपयोगी अंश का भी उपयोग किया जाएगा। दिगंबर-श्वेतांबर दोनों के ग्रंथों में वर्णित है कि, पार्श्वनाथ का जन्म काशी-बनारस में हुआ और उनका निर्वाण सम्मेतशिखर वर्तमान पार्श्वनाथ पहाड़-पर हुआ। दोनों के चरित्र-विषयक साहित्य से इतना तो निर्विवाद मालूम होता है कि पार्श्वनाथ का धर्म-प्रचार-क्षेत्र पूर्व भारत–खास कर गंगा के उत्तर और दक्षिण भाग---में रहा । खुद पार्श्वनाथ को विहार भूमि को सोमा का निश्चित निर्देश करना अभी संभव नहीं, परन्तु उनकी शिष्य परंपरा, जो पावापत्यिक कहलाती है, उसके विहार क्षेत्र की सीमा जैन और बौद्ध ग्रंथों के आधार पर, अस्पष्ट रूप में भी निर्दिष्ट की जा सकती है। अंगुत्तरनिकाय नामक २. आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती और उत्तराध्ययन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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