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भगवान पार्श्वनाथ की विरासत ।
[ एक ऐतिहासिक अध्ययन ] वर्तमान जैन परंपरा भगवान् महावीर की विरासत है । उनके आचार-विचार की छाप इसमें अनेक रूप से प्रकट होती है, इस बारे में तो किसी ऐतिहासिक को सन्देह था ही नहीं। पर महावीर की आचार-विचार की परंपरा उनकी निजी निर्मित है-जैसे कि बौद्ध परंपरा तथागत बुद्ध की निजी निर्मित है-~-या वह पूर्ववर्ती किसी तपस्वी की परंपरागत विरासत है ? इस विषय में पाश्चात्य ऐतिहासिक बुद्धि चुप न थी । जैन परंपरा के लिये श्रद्धा के कारण जो बात असन्दिग्ध थी उसी के विषय में वैज्ञानिक दृष्टि से एवं ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करनेवाले तटस्थ पाश्चात्य विद्वानों ने सन्देह प्रकट किया कि, पार्श्वनाथ आदि पूर्ववर्ती तीर्थकरों के अस्तित्व में क्या कोई ऐतिहासिक प्रमाण है ? इस प्रश्न का माकूल जवाब तो देना चाहिए था जैन विद्वानों को, पर वे वैसा कर न सके । आखिर को डॉ० याकोबी जैसे पाश्चात्य ऐतिहासिक ही आगे श्राए, और उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टि से छानबीन करके अकाट्य प्रमाणों के आधार पर बतलाया कि, कम से कम पार्श्वनाथ तो ऐतिहासिक हैं ही' । इस विषय में याकोबी महाशय ने जो प्रमाण बतलाए उनमें जैन यागमों के अतिरिक्त बौद्ध पिटक का भी समावेश होता है । बौद्ध पिटकगत उल्लेखों से जैन आगमगत वर्णनों का मेल बिठाया गया तब ऐतिहासिकों की प्रतीति दृढतर' हुई कि, महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ अवश्य हुए हैं | जैन आगमों में पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती बाईस तीर्थंकरों का वर्णन आता है । पर उसका बहुत बड़ा हिस्सा मात्र पौराणिक है । उसमें ऐतिहासिक प्रमाणों की कोई गति अभी तो नहीं दिखती।
१. डॉ० याकोबी : "That Parsva was a historical person, is now admitted by all as very probable."
--Sacred Books of the East, Vol. XLV,
Introduction, pp. XXI-XXXIII
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जैन धर्म और दर्शन याकोबी द्वारा पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता स्थापित होते ही विचारक और गवेषक को उपलब्ध जैन आगम अनेक बातों के लिए ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व के जान पड़े और वैसे लोग इस दृष्टि से भी आगमों का अध्ययन-विवेचन करने लगे। फलतः कतिपय भारतीय विचारकों ने और विशेषतः पाश्चात्य विद्वानों ने उपलब्ध जैन आगम के आधार पर अनेकविध ऐतिहासिक सामग्री इकट्ठी की
और उसका यत्र-तत्र प्रकाशन भी होने लगा । अब तो धीरे-धीरे रूढ़ और श्रद्धालु जैन वर्ग का भी ध्यान ऐतिहासिक दृष्टि से श्रुत का अध्ययन करने की ओर जाने लगा है। यह एक सन्तोष की बात है।
प्रस्तुत लेख में उसी ऐतिहासिक दृष्टि का आश्रय लेकर विचार करना है कि, भगवान् महावीर को जो आचार-विचार की आध्यात्मिक विरासत मिली वह किस. किस रूप में मिली और किस परंपरा से मिली ? इस प्रश्न का संक्षेप में निश्चित उत्तर देने के बाद उसका स्पष्टीकरण क्रमशः किया जाएगा। उत्तर यह है कि, महावीर को जो श्राध्यात्मिक विरासत मिली है, वह पार्श्वनाथ की परंपरागत देन है। वह विरासत मुख्यतया तीन प्रकार की है—(१) संघ (२) प्राचार और (३) श्रुत ।
यद्यपि उपलब्ध अागमों में कई अागम ऐसे हैं कि जिनमें किसी न किसी रूप में पार्श्वनाथ या उनकी परंपरा का सूचन हुआ है। परन्तु इस लेख में मुख्यतया पाँच अागम, जो कि इस विषय में अधिक महत्त्व रखते हैं, और जिनमें अनेक पुरानी बातें किसी न किसी प्रकार से यथार्थ रूप में सुरक्षित रह गई हैं, उनका उपयोग किया जाएगा। साथ ही बौद्ध पिटक में पाए जानेवाले संवादी उल्लेखों का तथा नई खोज करनेवालों के द्वारा उपस्थित की गई सामग्री में से उपयोगी अंश का भी उपयोग किया जाएगा।
दिगंबर-श्वेतांबर दोनों के ग्रंथों में वर्णित है कि, पार्श्वनाथ का जन्म काशी-बनारस में हुआ और उनका निर्वाण सम्मेतशिखर वर्तमान पार्श्वनाथ पहाड़-पर हुआ। दोनों के चरित्र-विषयक साहित्य से इतना तो निर्विवाद मालूम होता है कि पार्श्वनाथ का धर्म-प्रचार-क्षेत्र पूर्व भारत–खास कर गंगा के उत्तर और दक्षिण भाग---में रहा । खुद पार्श्वनाथ को विहार भूमि को सोमा का निश्चित निर्देश करना अभी संभव नहीं, परन्तु उनकी शिष्य परंपरा, जो पावापत्यिक कहलाती है, उसके विहार क्षेत्र की सीमा जैन और बौद्ध ग्रंथों के आधार पर, अस्पष्ट रूप में भी निर्दिष्ट की जा सकती है। अंगुत्तरनिकाय नामक
२. आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती और उत्तराध्ययन ।
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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत चौद्ध ग्रन्थ में बतलाया है कि, वप्प नाम का शाक्य निर्ग्रन्यश्रावक था । इसी मूल सुत्त की अटकथा में वप्प को गौतम बुद्ध का चाचा कहा है। वप्प बुद्ध का समकालीन कपिलवस्तु का निवासी शाक्य था। कपिलवस्तु नेपाल की तराई में है । नीचे की ओर रावती नदी—जो बौद्ध ग्रन्थों में अचिरावती नाम से प्रसिद्ध है, जो इरावती भी कहलाती है - उसके तट पर श्रावस्ती नामक प्रसिद्ध शहर था, जो अाजकल सहटमहट' कहलाता है। श्रावस्ती में पार्श्वनाथ की परंपरा का एक निर्ग्रन्थ केशी था, जो महावीर के मुख्य शिष्य गौतम से मिला था । उसी केशी ने पएसी नामक राजा को और उसके सारथि को धर्म प्राप्त कराया था। जैन आगमगत सेयविया" ही बौद्ध पिटकों की सेतव्या जान पड़ती है, जो श्रावस्ती से दूर नहीं। वैशाली, जो मुजफ्फरपुर जिले का आजकल का बसाह है, और क्षत्रियकुण्ड जो वासुकुण्ड कहलाता है तथा वाणिज्यग्राम, • जो बनिया कहलाता है, उसमें भी पापित्यिक मौजूद थे, जब कि महावीर का जीवनकाल पाता है। महावीर के माता-पिता भी पापित्यिक कहे गए हैं। उनके नाना चेटक तथा बड़े भाई नन्दीवर्धन आदि पाश्वापत्यिक रहे हों तो आश्चर्य नहीं। गंगा के दक्षिण राजगृही था, जो आजकल का राजगिर है। उसमें जब महावीर धर्मोपदेश करते हुए आते हैं तब तुंगियानिवासी पाश्वापत्यिक श्रावकों और पाश्वापत्यिक थेरों के बीच हुई धमें चर्चा की बात गौतम के द्वारा
३. एक समयं भगवा सक्केसुं विहरति कपिलवस्थुस्मिं अथ खो वप्पो सक्को निगएठसावगो इ० ।-अंगुन्तरनिकाय, चतुक्कनिपात, वग्ग ५ । The Dictionary of Pali Proper Names, Vol II, P. 832. ४. श्री नन्दलाल डे : The Geographical Dictionary of Ancient
and Mediaeval India, P. 188. ५. उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २३ । ६. रायपसेणइय (पं० वेचरदासजी संपादित), पृ० ३३० आदि । ७. देखो उपर्युक्त ग्रन्थ, पृ० २७४ । ८, ६, १० देखो-वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ६२, श्रा० विजय
कल्याणसूरि कृत श्रमणभगवानमहावीर में विहारस्थलनाम-कोष The Geographical Dictionary of Ancient and Medi
aeval India. ११. समणस्स णं भगवश्रो महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिजसमणोवासगा
यावि होत्था ।--अाचारांग, २, भावचूलिका ३, सूत्र ४०१ ।
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जैन धर्म और दर्शन सुनते हैं१२ । तुंगिया राजगृह के नजदीक में ही कोई नगर होना चाहिये, जिसकी पहचान श्राचार्य विजयकल्याणसूरि आधुनिक तुंगी गाम से कराते हैं१३ ।
बचे-खुचे ऊपर के अति अल्प वर्णनों से भी इतना तो निष्कर्ष हम निर्विवाद् रूप से निकाल सकते हैं कि, महावीर के भ्रमण और धर्मोपदेश के वर्णन में पाए जाने वाले गंगा के उत्तर दक्षिण के कई गाँव नगर पार्श्वनाथ की परम्परा के निग्रंथों के भी विहार-क्षेत्र एवं धर्मप्रचार-क्षेत्र रहे। इसी से हम जैन आगमों में यत्र-तत्र यह भी पाते हैं कि, राजगृही आदि में महावीर की पावापत्यिकों से भेंट हुई।
खुद बुद्ध अपनी बुद्धत्व के पहले की तपश्चर्या और चर्या का जो वर्णन करते हैं उसके साथ तत्कालीन निग्रंथ आचार १४ का हम जब मिलान करते हैं, कपिलवस्तु के निग्रंथ श्रावक वप्प शाक्य का निर्देश सामने रखते हैं तथा बौद्ध पिटकों में पाए जाने वाले खास प्राचार और तत्त्वज्ञान संबन्धी कुछ पारिभाषिक शब्द ५, जो केवल निग्रंथ प्रवचन में ही पाए जाते हैं - इन सब पर विचार करते हैं तो ऐसा मानने में कोई खास सन्देह नहीं रहता कि, बुद्ध ने भले थोड़े
१२. भगवती, २,५। १३. श्रमणभगवान्महावीर, पृ० ३७१ । १४. तुलना-दशवैकालिक, अ० ३, ५-१ और मज्झिमनिकाय,
महासिंहनादसुत्त । १५. पुग्गल, आसव, संवर, उपोसथ, सायक, उपासग इत्यादि ।
'पुग्गल' शब्द बौद्ध पिटक में पहले ही से जीव-व्यक्ति का बोधक रहा है। ( मज्झिमनिकाय ११४); जैन परम्परा में वह शब्द सामान्य रूप से जड़ परमाणुओं के अर्थ में रूढ हो गया है । तो भी भगवती, दशवैकालिक के प्राचीन स्तरों में उसका बौद्ध पिटक स्वीकृत अर्थ भी सुरक्षित रहा है । भगवती के ८-१०-३६१ में गौतम के प्रश्न के उत्तर में महावीर के मुख से कहलाया है कि, जीव 'पोग्गली' भी है और 'पोग्गल' भी। इसी तरह भगवती के २०-२ में जीवतत्त्व के अभिवचन---पर्यायरूप से 'पुग्गल' पद आया है । दशवकालिक ५-१-७३ में 'पोग्गल' शब्द 'मांस' अर्थ में प्रयुक्त है, जो जीवनधारी के शरीर से संबंध रखता है । ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह शब्द जैन-बौद्ध श्रुत से भिन्न किसी भी प्राचीन उपलब्ध श्रुत में देखा नहीं जाता ।
'पासव' और 'संवर' ये दोनों शब्द परस्पर विरुद्धार्थक हैं। श्रासव चित्त या आत्मा के क्लेश का बोधक है, जब कि संवर उसके निवारण एवं निवारणोपायका । ये दोनों शब्द पहले से जैन-आगम और बौद्ध पिटक में समान
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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत ही समय के लिये हो, पार्श्वनाथ की परंपरा को स्वीकार किया था। अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी अपनी अन्तिम पुस्तक पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म (पृ० २४, २६ ) में ऐसी ही मान्यता सूचित की है।
बुद्ध महावीर से प्रथम पैदा हुए और प्रथम ही निर्वाण प्राप्त किया । बुद्ध ने निग्रंथों के तपःप्रधान श्राचारों की अवहेलना'६ की है, और पूर्व-पूर्व गुरुओं की चर्या तथा तत्त्वज्ञान का मार्ग छोड़ कर अपने अनुभव से एक नए विशिष्ट मार्ग की स्थापना की है, गृहस्थ और त्यागी संघ का नया निर्माण किया है; जब कि महावीर ने ऐसा कुछ नहीं किया । महावीर का पितृधर्म पार्धापत्यिक निग्रंथों का है । उन्होंने कहीं भी उन निर्गयों के मौलिक आचार एवं तत्त्वज्ञान की जरा भी अवहेलना नहीं की है। प्रत्युत निग्रंथों के परम्परागत उन्हीं श्राचार-विचारों को अपनाकर अपने जीवन के द्वारा उनका संशोधन, परिवर्धन एवं प्रचार किया है। इससे हमें मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि, महावीर पार्श्वनाथ की अर्थ में ही प्रयुक्त देखे जाते हैं ( तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ६-१, २,८-१;६-१, स्थानांगसूत्र १ स्थान ; समवायांगसूत्र ५ समवाय ; मज्झिमनिकाय २।।
'उपोसथ' शब्द गृहस्थों के उपव्रत-विशेष का बोधक है, ओ पिटकों में आता है ( दीवनिकाय २६ )। उसी का एक रूप पोसह या पोसध भी है, जो आगमों में पहले ही से प्रयुक्त देखा जाता है ( उवासगदसाश्रो)। "
__ 'सावग' तथा 'उवासग' ये दोनों शब्द किसी-न-किसी रूप में पिटक ( दीघनिकाय ४ ) तथा अागमों में पहले ही से प्रचलित रहे हैं। यद्यपि बौद्ध परम्परा में 'सावग' का अर्थ है 'बुद्ध के साक्षात् भित्तु-शिष्य' (मज्झिमनिकाय ३), जब कि जैन परम्परा में वह 'उपासक' की तरह गृहस्थ अनुयायी अर्थ में ही प्रचलित रहा है।
कोई व्यक्ति गृहस्थाश्रम का त्याग कर भिक्षु बनता है तब उस अर्थ में एक वाक्य रूढ है, जो पिटक तथा आगम दोनों में पाया जाता है। वह वाक्य है "अगारस्मा अनगारियं पन्वजन्ति" ( महावग्ग ), तथा "अगाराश्रो अणगारियं पव्वइत्तए" (भगवती ११-१२-४३१)। ___ यहाँ केवल नमूने के तौर पर थोड़े से शब्दों की तुलना की है, पर इसके विस्तार के लिए और भी पर्याप्त गुजाइश है । ऊपर सूचित शब्द और अर्थ का सादृश्य खासा पुराना है । वह अकस्मात् हो ही नहीं सकता । अतएव इसके मूल में कहीं-न-कहीं जाकर एकता खोजनी होगी, जो संभवतः पार्श्वनाथ की परम्परा का ही संकेत करती है।
१६. मज्झिमनिकाय, महासिंहनादसुत्त ।
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जैन धर्म और दर्शन परम्परा में ही दीक्षित हुए--फिर भले ही वे एक विशिष्ट नेता बने । महावीर तत्कालीन पार्धापत्यिक परंपरा में ही हुए, इसी कारण से उनको पार्श्वनाथ के परंपरागत संघ, पार्श्वनाथ के परंपरागत आचार-विचार तथा पार्श्वनाथ का परम्परागत श्रुत विरासत में मिले, जिसका समर्थन नीचे लिखे प्रमाणों से होता है । संघ--
भगवती १-६-७६ में कालासवेसी नामक पाश्र्वापत्यिक का वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि, वह किन्हीं स्थविरों से मिला और उसने सामायिक, संयम, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग, विवेक आदि चरित्र संबन्धी मुद्दों पर प्रश्न किए । स्थविरों ने उन प्रश्नों का जो जवाब दिया, जिस परिभाषा में दिया, और कालासवेसी ने जो प्रश्न जिस परिभाषा में किए हैं, इस पर विचार करें तो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि, वे प्रश्न और परिभाषाएँ सब जैन परिभाषा से ही सम्बद्ध हैं। थेरों के उत्तर से कालासवेसी का समाधान होता है तब वह महावीर के द्वारा नवसशोधित पंचमहाव्रत और प्रतिक्रमणधर्म को स्वीकार करता है। अर्थात् वह महावीर के संघ का एक सभ्य बनता है। ___ भगवती ५-६-२२६ में कतिपय थेरों का वर्णन है। वे राजगृही में महावीर के पास मर्यादा के साथ जाते हैं, उनसे इस परिमित लोक में अनन्त रात-दिन और परिमित खस-दिन के बारे में प्रश्न पूछते हैं। महावीर पार्श्वनाथ का हवाला देते हुए जवाब देते हैं कि, पुरिसादागीय पार्श्व ने लोक का स्वरूप परिमित ही कहा है। फिर वे अपेक्षाभेद से रात-दिन की अनन्त और परिमित संख्या का खुलासा करते हैं। खुलासा सुनकर थेरों को महावीर को सर्वज्ञता के विषय में प्रतीति होती है, तब वे वन्दन-नमस्कारपूर्वक उनका शिष्यत्व स्वीकार करते हैं, अर्थात् पंच महाव्रतों और सप्रतिक्रमणधर्म के अंगीकार द्वारा महावीर के संघ के अंग बनते हैं। ___ भगवती ६-३२-३७८, ३७६ में गांगेय नामक पार्श्वपत्यिक का वर्णन है । वह वाणिज्यग्राम में महावीर के पास जाकर उनसे जीवों की उत्पत्ति च्युति आदि के बारे में प्रश्न करता है | महावीर जवाब देते हुए प्रथम ही कहते है कि, पुरिसादाणीय पार्श्व ने लोक का स्वरूप शाश्वत कहा है। इसी से मैं उत्पत्ति-च्युति श्रादि का खुलासा अमुक प्रकार से करता हूँ। गांगेय पुनः प्रश्न करता है कि, आप जो कहते हैं वह किसी से सुनकर या स्वयं जानकर ? महावीर के मुख से यहाँ कहलाया गया है कि, मैं केवली हूँ, स्वयं ही जानता हूँ। गांगेय को सर्वज्ञता की प्रतीति हुई, फिर वह चातुर्यामिक धर्म से पंचमहावत स्वीकारने की अपनी
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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत इच्छा प्रकट करता है और वह अन्त में सप्रतिक्रमण पंच महाव्रत स्वीकार करके महावीर के संघ का अंग बनता है।
सूत्रकृतांग के नालंदीया अध्ययन (२-७-७१, ७२, ८१) में पापित्यिक उदक पेढाल का वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि, नालंदा के एक श्रावक लेप की उदकशाला में जब गौतम थे तब उनके पास वह पावापत्यिक आया और उसने गौतम से कई प्रश्न पूछे। एक प्रश्न यह था कि, तुम्हारे कुमार-पुत्र आदि निग्रंथ जन गृहस्थों को स्थूल व्रत स्वीकार कराते हैं तो यह क्या सिद्ध नहीं होता कि निषिद्ध हिंसा के सिवाय अन्य हिंसक प्रवृत्तियों में स्थल व्रत देनेवाले निग्रंथों की अनुमति है ? अमुक हिंसा न करो, ऐसी प्रतिज्ञा कराने से यह अपने आप फलित होता है कि, बाकी की हिंसा में हम अनुमत हैं-इत्यादि प्रश्नों का जवाब गौतम ने विस्तार से दिया है। जब उदक पदाल को प्रतीति हुई कि गौतम का उत्तर सयुक्तिक है तब उसने चतुर्यामधर्म से पंचमहाव्रत स्वीकारने की इच्छा प्रकट की । फिर गौतम उसको अपने नायक ज्ञातपुत्र महावीर के पास ले जाते हैं। वहीं उदक पेढाल पंचमहाव्रत सप्रतिक्रमणधर्म को अंगीकार करके महावीर के संघ में सम्मिलित होता है। गौतम और उदक पेढाल के बीच हुई विस्तृत चर्चा .मनोरंजक है।
उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन में पापित्यिक निग्रंथ केशी और महावीर के मुख्य शिष्य इन्द्रभूति--दोनों के श्रावस्ती में मिलने की और आचार-विचार के कुछ मुद्दों पर संवाद होने की बात कही गई है। केशी पाश्र्वापत्यिक प्रभावशाली निग्रंथ रूप से निर्दिष्ट हैं; इन्द्रभूति तो महावीर के प्रधान और साक्षात् शिष्य ही हैं। उनके बीच की चर्चा के विषय कई हैं, पर यहाँ प्रस्तुत दो हैं । केशी गौतम से पूछते हैं कि, पार्श्वनाथ ने चार याम का उपदेश दिया, जब कि वर्धमान-महावीर ने पाँच याम--महाव्रत का, सो क्यों ? इसी तरह पार्श्वनाथ ने सचेल-सवस्त्र धर्म बतलाया, जब कि महावीर ने अचेल—अवसन धर्म, सो क्यों ? इसके जवाब में इन्द्रभूति ने कहा कि, १७ तत्त्वदृष्टि से चार याम और पाँच महाव्रत में कोई अन्तर नहीं है, केवल वर्तमान युग की कम और उलटी समझ देखकर ही महावीर ने विशेष शुद्धि की दृष्टि से चार के स्थान में पाँच महाव्रत का उपदेश किया है । और मोक्ष का वास्तविक कारण तो अान्तर ज्ञान, दर्शन और शुद्ध चारित्र ही है, वस्त्र का होना, न होना, यह तो लोकदृष्टि है । इन्द्रभूति के मूलगामी जवाब की यथार्थता देखकर केशी पंचमहाव्रत स्वीकार करते हैं; और इस तरह महावीर के संघ के एक अंग बनते हैं।
१७. उत्तराध्ययन, अ० २३, श्लोक २३-३२ ।
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जैन धर्म और दर्शन
ऊपर के थोड़े से उद्धरण इतना समझने के लिए पर्याप्त हैं कि महावीर और उनके शिष्य इन्द्रभूति का कई स्थानों में पावपत्यिकों से मिलन होता है । इन्द्रभूति के अलावा अन्य भी महावीर - शिष्य पार्श्वपत्यिकों से मिलते हैं । मिलाप के समय आपस में चर्चा होती है। चर्चा मुख्य रूप से संयम के जुदे - जुदे अंग के अर्थ के बारे में एवं तत्त्वज्ञान के कुछ मन्तव्यों के बारे में होती है। महावीर जवाब देते समय पार्श्वनाथ के मन्तव्य का आधार भी लेते हैं और पार्श्वनाथ को 'पुरिसादाणीय' अर्थात् 'पुरुषों में श्रदेय' जैसा सम्मानसूचक विशेषण देकर उनके प्रति हार्दिक सम्मान सूचित करते हैं । और पार्श्व के प्रति निष्ठा रखनेवाले उनकी परंपरा के निग्रंथों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । पावपित्यिक भी महावीर को अपनी परीक्षा में खरे उतरे देखकर उनके संघ में दाखिल होते हैं अर्थात् वे पार्श्वनाथ के परंपरागत संघ और महावीर के नवस्थापित संघ — दोनों के संधान में एक कड़ी बनते हैं। इससे यह मानना पड़ता है कि, महावीर ने जो संघ रचा उसकी भित्ति पार्श्वनाथ की संघ-परंपरा है।
यद्यपि कई पापित्यिक महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए, तो भी कुछ पार्श्वपत्यिक ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका महावीर के संघ में सम्मिलित होना निर्दिष्ट नहीं है । इसका एक उदाहरण भगवती २-५ में यों है-तुंगीया नामक नगर में ५०० पावपित्यिक श्रम पधारते हैं । वहाँ के तत्त्वज्ञ श्रमणोपासक उनसे उपदेश सुनते हैं । पाश्र्वपित्यिक स्थविर उनको चार याम आदि का उपदेश करते हैं | श्रावक उपदेश से प्रसन्न होते हैं और धर्म में स्थिर होते हैं ।
स्थविरों से संयम, तप आदि के विषय में तथा उसके फल के विषय में प्रश्न करते हैं । पार्श्वपत्यिक स्थविरों में से कालियपुत्त, मेहिल, श्रानन्दरस्त्रिय और कासव ये - चार स्थविर अपनी-अपनी दृष्टि से जवाब देते हैं । पाश्र्वपित्यिक स्थविर और पार्श्वपित्यिक श्रमणोपासक के बीच तुंगीया में हुए इस प्रश्नोत्तर का हाल इन्द्रभूति राजगृही में सुनते हैं और फिर महावीर से पूछते हैं कि - "क्या ये पार्श्वपत्यिक स्थविर प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं ?" महावीर स्पष्टतया कहते हैं कि – “वे समर्थ हैं । उन्होंने जो जवाब दिया वह सच है; मैं भी वही जवाब देता ।" इस संवादकथा में ऐसा कोई निर्देश नहीं कि, तुंगीयावाले पावपित्यिक निग्रंथ या श्रमणोपासक महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए । यदि वे प्रविष्ट होते तो इतने बड़े पार्श्वपित्यिक संघ के महावीर के संघ में सम्मिलित होने की बात समकालीन या उत्तरकालीन आचार्य शायद ही भूलते।
यहाँ एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि, पाश्र्वापत्यिक श्रमण न तो
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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत महावीर के पास आए हैं, न उनके संघ में प्रविष्ट हुए हैं, फिर भी महावीर उनके उत्तर की सच्चाई और क्षमता को स्पष्ट स्वीकार ही करते हैं।
दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि, जो पापित्यिक महावीर के संघ में श्राए, वे भी महावीर की सर्वज्ञता के बारे में पूरी प्रतीति कर लेने के पश्चात् ही उनको विधिवत् वन्दन-नमस्कार . तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वन्दामि'-- करते हैं; उसके पहले तो वे केवल उनके पास शिष्टता के साथ आते हैं'अदूर-सामते ठिच्चा'।
पार्श्वनाथ की परंपरा के त्यागी और गृहस्थ व्यक्तियों से संबन्ध रखने वाली, उपलब्ध अागमों में जो कुछ सामग्री है, उसको योग्य रूप में सकलित एवं व्यवस्थित करके पार्श्वनाथ के महावीर-कालीन संघ का सारा चित्र पं० दलसुख मालवणिया ने अपने एक अभ्यासपूर्ण लेख में, बीस वर्ष पहले खींचा है जो इस प्रसंग में खास द्रष्टव्य है। यह लेख 'जैन प्रकाश' के 'उत्थान-महावीरांक' में छपा है।
आचार-- . अब हम आचार की विरासत के प्रश्न पर आते हैं। पापित्यिक निग्रंथों का प्राचार बाह्य-आभ्यन्तर दो रूप में देखने में आता है। अनगारत्व, निग्रंथत्व, सचेलत्व, शीत, आतप आदि परिषह-सहन, नाना प्रकार के उपवास व्रत और भिक्षाविधि के कठोर नियम इत्यादि बाह्य प्राचार हैं। सामायिक समत्व या समभाव, पच्चखाण-त्याग, संयम----इन्द्रियनियमन, संवर-~-कषायनिरोध, विवेक ... अलिप्सता या सदसद्विवेक, व्युत्सर्ग---ममत्वत्याग, हिंसा असत्य अदत्तादान और बहिद्धादाण से विरति इत्यादि आभ्यन्तर प्राचार में सम्मिलित हैं |
पहले कहा जा चुका है कि, बुद्ध ने गृहत्याग के बाद निग्रंथ आचारों का भी पालन किया था । बुद्ध ने अपने द्वारा श्राचरण किए गए निग्रंथ प्राचारों का जो संक्षेप में संकेत किया है उसका पापित्यिक निग्रंथों की चर्या के उपलब्ध वर्णन के साथ मिलान करते हैं १६ एवं महावीर के द्वारा आचरित बाह्य चर्या के साथ मिलान करते हैं१६ तो सन्देह नहीं रहता कि, महावीर को निग्रंथ या अनगार धर्म की बाह्य चर्या पाश्र्वापत्यिक परंपरा से मिली है-- भले ही उन्होंने उसमें देशकालानुसारी थोड़ा-बहुत परिवर्तन किया हो। आभ्यन्तर आचार भी भगवान् महावीर का वही है जो पापित्यिकों में प्रचलित था । कालासवेसीपुत्त. १८. देखो -- नोट नं० १४ । १६. प्राचारांग, अ०६ ।
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जैन धर्म और दर्शन
जैसे पापित्यिक श्राभ्यन्तर चरित्र से संबद्ध पारिभाषिक शब्दों का जत्र अर्थ पूछते हैं तब महावीर के अनुयायी स्थविर वही जवाब देते हैं, जो पार्श्वपत्यिक परंपरा में भी प्रचलित था ।
निग्रंथों के बाह्याभ्यंतर आचार-चारित्र के पार्श्वपरंपरा से विरासत में मिलने पर भी महावीर ने उसमें जो सुधार किया है वह भी आगमों के विश्वसनीय प्राचीन स्तर में सुरक्षित है । पहले संघ की विरासतवाले वर्णन में हमने सूचित किया ही है कि, जिन-जिन पार्श्वपत्यिक निग्रंथों ने महावीर का नेतृत्व माना उन्होंने सप्रतिक्रमण पाँच महाव्रत स्वीकार किए। पार्श्वनाथ की परंपरा में चार याम थे, इसलिए पर्श्वनाथ का निग्रंथधर्म चातुर्याम कहलाता था । इस बात का समर्थन बौद्ध पिटक दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में आए हुए निग्रंथ के 'चातु-याम-संवर-संवृतो' इस विशेषण से होता है । यद्यपि उस सूत्र में ज्ञातपुत्र महावीर के मुख से चातुर्याम धर्म का वर्णन बौद्ध पिटक - संग्राहकों ने कराया है, पर इस अंश में वे भ्रान्त जान पड़ते हैं। पार्श्वपत्यिक परंपरा बुद्ध के समय में विद्यमान भी थी और उससे बुद्ध का तथा उनके कुछ अनुयायियों का परिचय भी था, इसलिये वे चातुर्याम के बारे में ही जानते थे । चातुर्याम के स्थान में पाँच यम या पाँच महाव्रत का परिवर्तन महावीर ने किया, जो पार्श्वपत्यिकों में से ही एक थे । यह परिवर्तन पार्श्वपत्यिक परंपरा की दृष्टि से भले ही विशेष महत्त्व रखता हो, पर निर्ग्रन्थ भिन्न इतर समकालीन बौद्ध जैसी श्रमण परंपरा के लिए कोई खास ध्यान देने योग्य बात न थी । जो परिवर्तन किसी एक फिरके की श्रान्तरिक वस्तु होती है उसकी जानकारी इतर परम्परात्रों में बहुधा तुरन्त नहीं होती । बुद्ध के सामने समर्थ पार्श्वपत्यिक निग्रंथ ज्ञातपुत्र महावीर ही रहे, इसलिए बौद्ध ग्रंथ में पार्श्वपत्यिक परंपरा का चातुर्याम धर्म महावीर के मुख से कहलाया जाए तो यह स्वाभाविक है । परन्तु इस वर्णन के ऊपर से इतनी बात निर्विवाद साबित होती है कि, पापित्यिक निर्ग्रन्थ पहले चातुर्याम धर्म के अनु यायी थे, और महावीर के संबन्ध से उस परंपरा में पंच यम दाखिल हुए। दूसरा -सुधार महावीर ने सप्रतिक्रमण धर्म दाखिल करके किया है, जो एक निर्ग्रन्थ परम्परा का आन्तरिक सुधार है । सम्भवतः इसीलिए बौद्ध ग्रन्थों में इसका कोई निर्देश नहीं ।
बौद्ध ग्रन्थों में पूरणकाश्यप के द्वारा कराए गए निर्ग्रन्थ के वर्णन में 'एकशाटक' विशेषण आता है; 'अचेल' विशेषण श्राजीवक के साथ श्राता है । निर्ग्रन्थ का 'एकशाटक' विशेषण मुख्यतया पार्श्वपत्यिक निर्ग्रन्थ की ओर २०. अंगुत्तरनिकाय, छक्कनिपात, २-१ |
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भगवान् पाश्वनाथ की विरासत
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ही संकेत करता है। हम आचारांग में वर्णित और सबसे अधिक विश्वसनीय महावीर के जीवन-अंश से यह तो जानते ही हैं कि महावीर ने गृहत्याग किया तब एक वस्त्र-चेल धारण किया था। क्रमशः उन्होंने उसका हमेशा के वास्ते त्याग किया, और पूर्णतया अचेलत्व स्वीकार किया। उनकी यह अचेलत्व भावना मूलगत रूप से हो या पारिपाश्विक परिस्थिति में से ग्रहण कर आत्मसात् की हो, यह प्रश्न यहाँ प्रस्तुत नहीं ; प्रस्तुत इतना ही है कि, महावीर ने सचेलत्व में से अचेलत्व की ओर कदम बढ़ाया। इस प्रकाश में हम बौद्धग्रन्थों में आए हुए निर्ग्रन्थ के विशेषण 'एकशाटक' का तात्पर्य सरलता से निकाल सकते हैं। वह यह कि, पाश्र्वापत्यिक परंपरा में निर्ग्रन्थों के लिये मर्यादित वस्त्रधारण वर्जित न था, जब कि महावीर ने वस्त्रधारण के बारे में अनेकान्तदृष्टि से काम लिया । उन्होंने सचेलत्व और अचेलत्व दोनों को निर्ग्रन्थ संघ के लिए यथाशक्ति और यथारुचि स्थान दिया । अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी अपने पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म' (पृ. २०) में ऐसा ही मत दरसाया है । इसी से हम उत्तराध्ययन के केशी-गौतम-संवाद में अचेल और सचेल धर्म के बीच समन्वय पाते हैं । उसमें खास तौर से कहा गया है कि, मोक्ष के लिये तो मुख्य और पारमार्थिक ' लिंग-साधन ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप आध्यात्मिक सम्पत्ति ही है। अचेलत्व या सचेलत्व यह तो लौकिक-बाह्य लिंगमात्र है, पारमार्थिक नहीं।
इस तात्पर्य का समर्थन भगवती आदि में वर्णित पापित्यिकों के परिवर्तन से स्पष्ट होता है। महावीर के संघ में दाखिल होनेवाले किसी भी पावापत्यिक निग्रंथ के परिवर्तन के बारे में यह उल्लेख नहीं है कि, उसने सचेलत्व के स्थान में अचेलत्व स्वीकार किया; जब कि उन सभी परिवर्तन करनेवाले निग्रंथों के लिए निश्चित रूप से कहा गया है कि उन्होंने चार याम के स्थान में पाँच महाव्रत और प्रतिक्रमण धर्म स्वीकार किया।
महावीर के व्यक्तित्व, उनकी आध्यात्मिक दृष्टि और अनेकान्त वृत्ति को देखते हुए ऊपर वर्णन की हुई सारी घटना का मेल सुसंगत बैट जाता है। महाव्रत और प्रतिक्रमण का सुधार, यह अन्तःशुद्धि का सुधार है इसलिए महावीर ने उस पर पूरा भार दिया, जब कि स्वयं स्वीकार किए हुए अचेलत्व पर एकान्त भार २१. णो चेविमेण वत्येण पिहिस्सामि तंसि हेमंते।
से पारए श्रावकहाए एवं खु अणुधम्मियं तस्स |॥२॥ संवच्छरं साहियं मासं जं न रिकासि वत्थगं भगवं । अचेलए तो चाइ तं बोसिज वत्थमगारे ॥४॥
-अाधारांग, १-६-१ ।
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जैन धर्म और दर्शन
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नहीं दिया । उन्होंने सोचा होगा कि, आखिर अचेलत्व या सचेलत्व, यह कोई जीवन-शुद्धि की अन्तिम कसौटी नहीं है । इसीलिए उनके निग्रंथ संघ में सचेल और अचेल दोनों निग्रंथ अपनी-अपनी रुचि एवं शक्ति का विचार करके 'ईमानदारी के साथ परस्पर उदार भाव से रहे होंगे । उत्तराध्ययन का वह संवाद • उस समय की सूचना देता है, जब कि कभी निर्ग्रन्थों में सारासार के तारतम्य की विचारणा चली होगी। • अनेकान्त दृष्टि का जो यथार्थ प्राण स्पन्दित होता है देन है ।
के बीच सचेलत्व के बारे पर उस समन्वय के मूल वह महावीर के विचार की
में
पावपित्यिक परंपरा में जो चार बाम थे उनके नाम स्थानांगसूत्र में यों आते हैं; (१) सर्वप्राणातिपात -- ( २ ) सर्वमृषावाद - ( ३ ) सर्वश्रदत्तादानऔर (४) सर्वत्र हिद्धादाण – से विरमण २२ इनमें से 'बहिद्वादा' का 'अर्थ जानना यहाँ प्राप्त है । नवांगीटीकाकार श्रभयदेव ने ' वहिद्धादाण' शब्द - का अर्थ 'परिग्रह' सूचित किया है । 'परिग्रह से विरति' यह पार्श्वापित्यिकों का - चौथा याम था, जिसमें ब्रह्म का वर्जन अवश्य अभिप्रेत था २३ । पर जब - मनुष्यसुलभ दुर्बलता के कारण ब्रह्मविरमण में शिथिलता श्रई और परिग्रहविरति के अर्थ में स्पष्टता करने की जरूरत मालूम हुई तब महावीर ने
विरमण को परिग्रहविरमण से अलग स्वतंत्र यम रूप में स्वीकार करके पाँच महाव्रतों की भीष्मप्रतिज्ञा निग्रंथों के लिए रखी और स्वयं उस प्रतिज्ञा-पालन के पुरस्कर्ता हुए। इतना ही नहीं बल्कि क्षण-क्षण के जीवनक्रम में बदलनेवाली मनोवृत्तियों के कारण होनेवाले मानसिक, वाचिक, कायिक दोष भी महावीर को निग्रंथ जीवन के लिए अत्यन्त अखरने लगे, इससे उन्होंने निग्रंथ-जीवन में सतत जागृति रखने की दृष्टि से प्रतिक्रमण धर्म को नियत स्थान दिया, जिससे कि -प्रत्येक निग्रंथ सायं प्रातः अपने जीवन की त्रुटियों का निरीक्षण करे और लगे २२. मज्झिमगा बावीसं अरहंता भगवंता चाउज्जामं धम्मं परणवैति, तं० सव्वातो पाणातियायाश्रो वेरमणं, एवं मुसावायाश्रो वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादारणाश्रो वेरमणं, सव्वाश्रो बहिद्धादारणाओ वेरमणं १ । –स्थानांग, सूत्र २६६, पत्र २०१ अ ।
-
२३. “बहिद्धादारणानो” त्ति बहिद्धा - मैथुनं पहिग्रह विशेषः
प्रादानं च परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैकत्वमथवा श्रादीयत इत्यादानं परिग्राह्यं वस्तु तच्च धर्मोपकररामपि भवतीत्यत श्राह— बहिस्तात् - धर्मोपकरणाद् बहिर्यदिति । इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यत इति । --- स्थानांग, २६६ सूत्रवृत्ति, पत्र २०१ ब ।
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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत
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दोषों की आलोचनापूर्वक यंदा दोषों से बचने के लिए शुद्ध संकल्प को हड़ करे । महावीर की जीवनचर्या और उनके उपदेशों से यह भली-भाँति जान पड़ता है कि, उन्होंने स्वीकृत प्रतिज्ञा की शुद्धि और अन्तर्जागृति पर जितना भार दिया है उतना अन्य चीजों पर नहीं। यही कारण है कि तत्कालीन अनेक पार्श्वपत्यिकों के रहते हुए भी उन्हीं में से एक ज्ञातपुत्र महावीर ही निर्बंध संघ के अगुवा रूप से या तीर्थंकर रूप से माने जाने लगे । महावीर के उपदेशों में जितना भार कषायविजय पर हैं जो कि निर्मन्थ-जीवन का मुख्य साध्य है उतना भार अन्य किसी विषय पर नहीं है । उनके इस कठोर प्रयत्न के कारण ही चार याम का नाम स्मृतिशेष बन गया व पाँच महाव्रत संयमधर्म के जीवित श्रंग बने ।
महावीर के द्वारा पंच महाव्रत-धर्म के नए सुधार के बारे में तो श्वेताम्बरदिगम्बर एकमत हैं, पर पाँच महाव्रत से क्या अभिप्रेत है, इस बारे में विचारभेद श्रवश्य है । दिगंबराचार्य वटकेर का एक 'मूलाचार' नामक ग्रन्थ है -- जो संग्रहात्मक है-उसमें उन्होंने पाँच महाव्रत का अर्थ पाँच यम न बतलाकर केवल जैन परंपरा परिचित पाँच चारित्र बतलाया है। उनका कहना है कि, महावीर के पहले मात्र सामायिक चारित्र था, पर महावीर ने छेदोपस्थापन दाखिल करके
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सामायिक के ही विस्तार रूप से अन्य चार चारित्र बतलाए, जिससे महावीर पंच महाव्रत धर्म के उपदेशक माने जाते हैं । आचार्य वटकेर की तरह पूज्यपाद, कलंक, आशावर आदि लगभग सभी दिगंबराचार्य और दिगंबर विद्वानों का वह एक ही अभिप्राय है २४ । निःसन्देह श्वेतांबर-परंपरा के पंच महाव्रतधर्म के खुलासे से दिगंबर परंपरा का तत्संबन्धी खुलासा जुदा पड़ता है । भद्रबाहुकर्तृक मानी जानेवाली नियुक्ति में भी छेदोपस्थापना चारित्र को दाखिल करके पाँच चारित्र महावीरशासन में प्रचलित किए जाने की कथा निर्दिष्ट है, पर यह कथा केवल चारित्रपरिणाम की तीव्रता, तोव्रतरता और तीव्रतमता के तारतम्य पर एवं भिन्न-भिन्न दीक्षित व्यक्ति के अधिकार पर प्रकाश डालती है, न कि समग्र निग्रंथों के लिए अवश्य स्वीकार्य पंच महाव्रतों के ऊपर | जब कि महावीर का पंच महाव्रत-धर्म-विषयक सुधार निर्ग्रथ दीक्षा लेनेवाले सभी के लिए एक-सा रहा, ऐसा भगवती आदि ग्रंथों से तथा बौद्ध पिटक निर्दिष्ट ' चातुयाम-संवर- संवुतो' २५ इस विशेषण से फलित होता है । इसके समर्थन में प्रतिक्रमण धर्म का उदाहरण पर्याप्त है । महावीर ने प्रतिक्रमण धर्म भी सभी निर्ग्रन्थों
२४. देखो - पं० जुगल किशोर जी मुख्तार कृत-- जैनाचार्यों का शासनभेद, परिशिष्ट 'क' |
२५. “ चातु-याम-संवर-संवुतो" इस विशेषण के बाद 'सव्व-वारि-वारितो' इत्यादि
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के लिए समान रूप से अनुशासित किया । इस प्रकाश में पंच महाव्रत धर्म का अनुशासन भी सभी निर्ग्रन्थों के लिये रहा हो, यही मानना पड़ता है। मूलाचार यदि दिगंबर परंपरा में जो विचारभेद सुरक्षित है वह साधार अवश्य हैं, क्योंकि, श्वेतांबरीय सभी ग्रन्थ छेदोपस्थान सहित पाँच चारित्र का प्रवेश महावीर के शासन में बतलाते हैं। पाँच महाव्रत और पाँच चारित्र ये एक नहीं । दोनों में पाँच की संख्या समान होने से मूलाचार आदि ग्रन्थों में एक विचार सुरक्षित रहा तो श्वेताम्बर ग्रन्थों में दूसरा भी विचार सुरक्षित है । कुछ भी हो, दोनों परंपराएँ पंच महाव्रत धर्म के सुधार के बारे में एक-सो सम्मत हैं ।
वस्तुतः पाँच महाव्रत यह पार्श्वपत्यिक चातुर्याम का स्पष्टीकरण ही है । इससे यह कहने में कोई बाधा नहीं कि, महावीर को संयम या चारित्र की विरासत भी पार्श्वनाथ की परंपरा से मिली है ।
हम योगपरंपरा के आठ योगांग से परिचित हैं । उनमें से प्रथम अंग यम I है । पातंजल योगशास्त्र ( २ - ३०, ३१ में हिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम गिनाए हैं; साथ ही इन्हीं पाँच यमों को महाव्रत भी कहा है --- जब कि वे पाँच यम परिपूर्ण या जाति- देश - काल - समयानवच्छिन्न हो । मेरा खयाल है कि, महावीर के द्वारा पाँच यमों पर अत्यन्त भार देने एवं उनको महाव्रत के रूप से मान लेने के कारण ही 'महाव्रत' शब्द पाँच यमों के लिए विशेष प्रसिद्धि में आया । श्राज तो यम या याम शब्द पुराने जैनश्रुत में, बौद्ध पिटकों में और उपलब्ध योगसूत्र में मुख्यतया सुरक्षित है । 'यम' शब्द का उतना प्रचार व नहीं है, जितना प्रचार 'महाव्रत' शब्द का ।
विशेषण ज्ञातपुत्र महावीर के लिए आते हैं । इनमें से 'सव्व-वारि-वारितो' कथा के अनुसार श्री राहुल जी आदि ने किया है कि - "निगराठ
( निर्ग्रन्थ ) जल के व्यवहार का वारण करता है ( जिससे जल के जीव न मारे जाएँ ) । " ( दीघनिकाय, हिन्दी अनुवाद, पृ० २१ ) पर यह अर्थ भ्रमपूर्ण है । जलबोधक "वारि" शब्द होने से तथा निर्ग्रन्थ सचित्त जल का उपयोग नहीं करते, इस वस्तुस्थिति के दर्शन से भ्रम हुआ जान पड़ता है । वस्तुतः " सव्य-वारि-वारितो" का अर्थ यही है कि सब अर्थात् हिंसा आदि चारों पापकर्म के वारि अर्थात् वारस याने निषेध के कारण वारित अर्थात् विरत; याने हिंसा आदि सब पापकर्मों के निवारण के कारण उन दोषों से विरत । यही अर्थं अगले 'सव्व-वारि-युतो', 'सव्व-वारि-धुतो' इत्यादि विशेषण में स्पष्ट किया गया है। वस्तुतः सभी विशेषण एक ही अर्थ को भिन्न-भिन्न भंगी से दरसाते हैं ।
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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत जब चार याम में से महावीर के पाँच महाव्रत और बुद्ध के पाँच शील के विकास पर विचार करते हैं तब कहना पड़ता है कि, पार्श्वनाथ के चार याम की परंपरा का ज्ञातपुत्र ने अपनी दृष्टि के अनुसार और शाक्यपुत्र ने अपनी दृष्टि के अनुसार विकास किया है २६, जो अभी जैन और बौद्ध परंपरा में विरासतरूप से विद्यमान है। श्रुत
अब हम अन्तिम विरासत—-श्रुतसम्पत्ति—पर आते हैं। श्वेतांबर-दिगंबर दोनों के वाङमय में जैन श्रुत का द्वादशांगी रूप से निर्देश है ।२७ अाचारांग
आदि ग्यारह अंग और बारहवें दृष्टिवाद अंग का एक भाग चौदह पूर्व, ये विशेष प्रसिद्ध हैं । आगमों के प्राचीन समझे जाने वाले भागों में जहाँ जहाँ किसी के अनगार धर्म स्वीकार करने की कथा है वहाँ या तो ऐसा कहा गया है कि वह सामायिक आदि ग्यारह अंग पढ़ता है या वह चतुर्दश पूर्व पढ़ता है। २८ हमें इन उल्लेखों के ऊपर से विचार यह करना है कि, महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ या उनकी परंपरा की श्रुत-सम्पत्ति क्या थी ? और इसमें से महावीर को विरासत मिली या नहीं ? एवं मिली तो किस रूप में ?
शास्त्रों में यह तो स्पष्ट ही कहा गया है कि, आचारांग आदि ग्यारह अंगों
२६. अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने अन्त में जो “पार्श्वनाथ चा चातुर्याम
धर्म' नामक पुस्तक लिखी है उसका मुख्य उद्देश ही यह है कि, शाक्यपुत्र ने पार्श्वनाथ के चातुर्यामधर्म की परंपरा का विकास किस-किस तरह से
किया, यह बतलाना । २७. षट्खण्डागम (धवला टीका), खण्ड १, पृष्ठ ६ : बारह अंगगिज्झा ।
समवायांग, पत्र १०६, सूत्र १३६ : दुवालसंगे गणिपिडगे। नन्दीसूत्र ( विजयदानसूरि संशोधित) पत्र ६४ : अंगपविई दुवालसविह
पएणतं । २८ ग्यारह अंग पढ़ने का उल्लेख - भगवती २. १, ११-६ ज्ञाता धर्मकथा,
अ० १२ । चौदह पूर्व पढ़ने का उल्लेख-भगवती ११-११-४३२, १७-२-६१७; ज्ञाताधर्म-कथा, अ० ५। ज्ञाता० अ० १६ में पाण्डवों के चौदह पूर्व पढ़ने का व द्रौपदी के ग्यारह अंग पढ़ने का उल्लेख है । इसी तरह ज्ञाता० २-१ में काली साध्वी बन कर ग्यारह अंग पढ़ती है, ऐसा वर्णन है।
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की रचना महावीर के अनुगामी गणधरों ने की । २६ यद्यपि नन्दीसूत्र की पुरानी व्याख्या - चूर्णि - ~ जो विक्रम की आठवीं सदी से अर्वाचीन नहीं— उसमें 'पूर्व' शब्द का अर्थ बतलाते हुए कहा गया है कि, महावीर ने प्रथम उपदेश दिया इसलिए 'पूर्व' कहलाए इसी तरह विक्रम की नवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य वीरसेन ने घवला में 'पूर्वगत' का अर्थ बतलाते हुए कहा कि जो पूर्वो को प्राप्त हो या जो पूर्व स्वरूप प्राप्त हो वह 'पूर्वगत' ; परन्तु चूर्णिकार एवं उत्तरकालीन वीरसेन, हरिभद्र, मलयगिरि आदि व्याख्याकारों का वह कथन केवल 'पूर्व' और 'पूर्वगत' शब्द का अर्थ घटन करने के अभिप्राय से हुआ जान पड़ता है। जब भगवती में कई जगह महावीर के मुख से यह कहलाया गया है कि, अमुक वस्तु पुरुषादानीय पार्श्वनाथ ने वही कही है जिसको मैं भी कहता हूँ, और जब हम सारे श्वेतांबर - दिगंबर श्रुत के द्वारा यह भी देखते हैं कि, महावीर का तत्त्वज्ञान वहीं है जो पाश्र्वपित्यिक परम्परा से चला आता है, तब हमें 'पूर्व' शब्द का अर्थ समझने में कोई दिक्कत नहीं होती । पूर्व श्रुत का श्रर्थ स्पष्टतः यही है कि, जो श्रुत महावीर के पूर्व से पार्श्वपत्यिक परम्परा द्वारा चला आता था, और जो किसी न किसी रूप में महावीर को भी प्रास हुआ। प्रो० याकोबी आदि का भी ऐसा ही मत है । ३२ जैन श्रुत के मुख्य विषय नवतत्त्व, पंच अस्तिकाय श्रात्मा और कर्म का 'उनकी निवृत्ति के उपाय, कर्म का स्वरूप इत्यादि हैं । इन्हीं विषयों को महावीर और उनके शिष्यों ने संक्षेप से विस्तार और विस्तार से संक्षेप कर भले ही कहा हो, पर वे सब विषय पार्श्वपत्यिक परम्परा के पूर्ववर्ती श्रुत में किसी-न-किसी रूप
संबन्ध, उसके कारण,
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२६-३०. जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराणं सव्वसुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगतसुत्तत्थं भासति तम्हा पुव्वं ति भणिता, गणधरा पुरा सुत्तरवणं करेन्ता श्रायाराइकमेण रति ठवेंति य ।
- नन्दीसूत्र ( विजयदानसूरि संशोधित) चूर्ण, पृ० १११ अ ।
३१. पुव्वाणं गयं पत्त- पुव्वसरूवं वा पुव्वगयमिदि गणणामं ।
-- षट्खंडागम ( धवला टीका ), पुस्तक १, पृ० ११४ The name ( पूर्व ) itself testifies to the fact that the Purvas were superseded by a new canon, for Purva means former, earlier......
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-Sacred Books of the East, Vol XXII Introduction, P. XLIV
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भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत
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में निरूपित थे, इस विषय में कोई सन्देह नहीं। एक भी स्थान में महावीर या उनके शिष्यों में से किसी ने ऐसा नहीं कहा कि, जो महावीर का श्रुत है वह पूर्व अर्थात् सर्वथा नवोत्पन्न है । चौदह पूर्व के विषयों की एवं उनके भेद प्रभेदों की जो टूटी-फूटी यादी नन्दी सूत्र 33 में तथा धवला ३४ में मिलती है उसका श्राचारांग आदि ग्यारह अंगों में तथा अन्य उपांग आदि शास्त्रों में प्रति पादित विषयों के साथ मिलान करते हैं तो, इसमें सन्देह ही नहीं रहता कि, जैन परंपरा के आचार-विचार विषयक मुख्य मुद्दों की चर्चा, पाश्र्वापत्यिक परंपरा के पूर्वश्रुत और महावीर की परंपरा के अंगोरांग श्रुत में समान ही है। इससे मैं अभी तक निम्नलिखित निष्कर्ष पर आया हूँ
(२) पार्श्वनाथीय परंपरा का पूर्वश्रुत महावीर को किसी-न-किसी रूप में प्राप्त हुआ । उसी में प्रतिपादित विषयों पर हो अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार आचारांग आदि ग्रंथों की जुदे जुदे हाथों से रचना हुई है ।
( २ ) महावीरशासित संघ में पूर्वश्रुत और श्राचारांग आदि श्रुत – दोनों की बड़ी प्रतिष्ठा रही । फिर भी पूर्वश्रुत की महिमा अधिक ही की जाती रही है । इसी से हम दिगम्बर श्वेतांबर दोनों परम्परा के साहित्य में श्राचार्यों का ऐसा प्रयत्न पाते हैं, जिसमें वे अपने-अपने कर्म विषयक तथा ज्ञान आदि विषयक इतर पुरातन ग्रन्थों का संबन्ध उस विषय के पूर्वनामक ग्रन्थ से जोड़ते हैं, इतना ही नहीं पर दोनों परम्परा में पूर्वश्रुत का क्रमिक ह्रास लगभग एक-सा वर्णित होने पर भी कमीवेश प्रमाण में पूर्वज्ञान को धारण करनेवाले आचार्यों के प्रति विशेष बहुमान दरसाया गया है। दोनों परंपरा के वर्णन से इतना निश्चित मालूम पड़ता है कि, सारी निर्ग्रन्थ परम्परा अपने वर्तमान श्रुत का मूल पूर्व में मानती आई है।
( ३ ) पूर्वश्रुत में जिस-जिस देश काल का एव जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिंब था उससे आचारांग आदि अंगों में भिन्न देशकाल एवं भिन्न व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिंब पड़ा यह स्वाभाविक है; फिर भी आचार एवं तत्त्वज्ञान के मुख्य मुद्दों के स्वरूप में दोनों में कोई खास अन्तर नहीं पड़ा । उपसंहार -
महावीर के जीवन तथा धर्मशासन से सम्बद्ध अनेक प्रश्न ऐसे हैं, जिनकी गवेषणा श्रावश्यक है; जैसे कि श्राजीवक परंपरा से महावीर का संबन्ध तथा ३३. नन्दीसूत्र, पत्र १०६ से ।
३४ षखंडागम ( धवला टीका ), पुस्तक १, ५० ११४ से ।
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जैन धर्म और दर्शन इतर समकालीन तापस, परिव्राजक और बौद्ध आदि परंपराओं से उनका संबन्धऐसे संबन्ध जिन्होंने महावीर के प्रवृत्ति क्षेत्र पर कुछ असर डाला हो या महावीर की धर्म प्रवृत्ति ने उन परम्पराओं पर कुछ-न-कुछ असर डाला हो। ___ इसी तरह पार्श्वनाथ को जो परम्परा महावीर के संघ में सम्मिलित होने से तटस्थ रही उसका अस्तित्व कब तक, किस-किस रूप में और कहाँ कहाँ रहा अर्थात् उसका भावी क्या हुआ—यह प्रश्न भी विचारणीय है। खारवेल, जो अद्यतन संशोधन के अनुसार जैन परम्परा का अनुगामी समझा जाता है, उसका दिगम्बर या श्वेताम्बर श्रुत में कहीं भी निर्देश नहीं इसका क्या कारण ? क्या महावीर की परम्परा में सम्मिलित नहीं हुए ऐसे पापित्यिकों की परम्परा के साथ तो उसका सम्बन्ध रहा न हो ? इत्यादि प्रश्न भी विचारणीय हैं।
प्रो० याकोबी ने कल्पसूत्र की प्रस्तावना में गौतम और बौधायन धर्मसूत्र के साथ निम्रन्थों के व्रत-उपव्रत की तुलना करते हुए सूचित किया है कि, निम्रन्थों के सामने वैदिक संन्यासी धर्म का आदर्श रहा है इत्यादि । परन्तु इस प्रश्न को भी अब नए दृष्टिकोण से विचारना होगा कि, वैदिक परम्परा, जो मूल में एकमात्र गृहस्थाश्रम प्रधान रही जान पड़ती है, उसमें संन्यास धर्म का प्रवेश कब कैसे और किन बलों से हुआ और अन्त में वह संन्यास धर्म वैदिक परंपरा का एक. आवश्यक अंग कैसे बन गया ? इस प्रश्न की मीमांसा से महावीर पूर्ववर्ती निर्ग्रन्थ परम्परा और परिव्राजक परम्परा के संबन्ध पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है। ... परन्तु उन सब प्रश्नों को भावी विचारकों पर छोड़कर प्रस्तुत लेख में मात्र पार्श्वनाथ और महावीर के धार्मिक संबन्ध का ही संक्षेप में विचार किया है ।
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परिशिष्ट ।
तेरणं काले णं तेणं समए णं पासावचिज्जे कालासवे सियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति २ त्ता थेरे भगवंते एवं बयासी — थेरा सामाइयं ण जाणंति थेरा सामाइयस्स टू याति थेरा पञ्चक्खाणं या ंति थेरा पञ्चक्खाणस्स टूट गयाणंति, थेरा संजमं ण याणंति थेरा संजमस्स टं स याणंति, थेरा संवरं ण याांति थेरा संघरस्स
ह
विवेगं ण याणंति थेरा विवेगस्स ट्ठ ण याांति, येरा थेरा विउस्सग्गस्स अट्ठ ण याति ६ । तए गं ते घेरा पुतं णगारं एवं वयासी जागामो गं जो ! सामाइयं सामाइयस्स श्रद्ध' जाव जागामो गं जो ! विउस्सगस्स । तए गं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते एवं व्यासी— जति खं जो ! तुमे जाराह सामाइयं जाणह सामाइयस्स अट्ठे जाव जागृह विउस्सग्गस्स अट्ठ, के भेजो ! सामाइए के जो सामाइयस्स ट्ठे जाव के भे विउस्सगस्स अट्ठे ? तए -ते थे भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी - आया. हे अज्जो ! सामाइए श्राया से अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठे जाव विउस्सग्गस्स अट्ठे ।
एत्थ णं से कालासवेसियपुत्त अणगारे संबुद्धे थेरे भगवंते बंदति रामसति २ ता एवं क्यासी -- एएसि गं भंते! पयागं पुव्वि असणारण्याए श्रसक्रणयाए श्रोहियाए...
णो रोइए इया िभंते ! एतेसिं पयाणं जाण्याए....
रोएमि एवमेयं से जहेयं तुब्मे वदह,
तर से कालासवेसियपुत्त अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नर्मसइ, वंदिता -नमंसित्ता चाउज्जामाग्री धम्मा पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता - विहरs |
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १ उद्देश ६ | सू० ७६ ते काले २ पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ समणस्स भगवश्रो महावीरस्स चदासी से नूरणं भंते ! असंखेज्जे लोए अंता रातिंदिया
दूरसामंते ठिच्चा एवं उप्पज्जिसु वा उष्पज्जति
वा उप्पज्जिस्संति वा विगच्छ्रिसु वा विगच्छंति वा विगच्छिस्संति वा परिता
टूढं य याांति, धेरा विउस्सगं या यासंति भगवंतो कालासवेसियजाणामो गं जो !
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जैन धर्म और दर्शन रातिदिया उपजिसु वा३ विगच्छिसु वा ३ ? हंता अज्जो! असंखेज्जे लोए अयंता रातिदिया तं चेव । से केणणं जाव विगच्छिस्संति वा १ से नूणं भंते अन्जो पासेणं अरहया पुरिसादागीएणं सासए लोए वुइए...
जे लोकह से लोए ? हंता भगवं ! से तेणणं अज्जो! एवं वुश्चह असंखेज्जे तं चेव । तप्प भितिं च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणंति सव्वन्नू सम्बदरिसी तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भरावं महावीरं वंदंति नमसंति २, एवं वदासि - इच्छामि गं भंते ! तुम्मे अंतिए चाउन्जामाश्रो धम्माश्रो पंचमहव्वयं सप्पडिकमणं धर्म उवसंपज्जित्ता रणं विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ५ उद्देश ६ । सू० २२७ तेणं कालेणं तेषां समए ए वाणियगामे नगरे होत्था ।"
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिज्जे गंगेए नामं अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छइत्ता समणस्स भगवत्रों महावीरस्स अदूरसामंते. ठिच्चा समरां भगवं महावीरं एवं क्यासी-संतरं भंते ! नेरइया उववज्जति निरन्तरं नेरड्या उववज्जति १ गंगेया! संतरं पि नेरहया उववज्जति निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति । (सू० ३७१)
से केण?णं भंते ! एवं बुच्चह सतो नेरइया उववज्जति नो असतो नेरइया ' उववज्जंति जाव सो वेमाणिया चयंति नो असश्रो वेमाणिया चयंति ? से नूर्ण भंते ! गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुहए।
सयं भते ! एवं जाणह उदाहु असयं असोचा एते एवं जाणह उदाहु सोच्चा सतो नेरइया उववज्जति नो असतो नेरइया उववज्जंति। गंगेया ! सयं एते एवं जणामि नो असयं,
(सू० ३७८) तप्पभिई च णं से गंगेये अणगारे समां भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सम्वन्नू सव्वदरिसी। . इच्छामि णं भंते ! तुझं अंतियं चाउजामाश्रो धम्मो पंचमहत्वइयं
___ व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ६ उद्देश ३२ । सू० ३७६ तेणं कालेणं २ तुंगिया नाम नगरी होत्था.....
( सू० १०७) । तेणं काले २ पासावच्चिजा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना...."विहरंति ॥
(सूत्र १०८) तए णं ते थेरा भगवतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे य महतिमहालियाए चाउजाम धम्म परिकहेंति..... ... तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वदासी-जति णं भंते ! संजमे
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परिशिष्ट
अणण्यफले तवे वोदाणफले किं पत्तियं णं भंते ! देवा देवलोएसु उववज्जति ? तत्थ णं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वदासी-पुव्वतवेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववज्जंति । तत्थ णं मेहिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं वदासी-पुव्वसेजमेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववज्जंति । तत्थ णं आणंदरक्खिए णाम थेरे ते समणोवासए एवं वदासी-कम्मियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववजंति । तत्थ णं कासवे णाम थेरे ते समणोवासए एवं वदासी-संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति । पुवतवेणं पुल्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जंति । सच्चे णं एस अह नो चेव णं आयभाववत्तव्ययाए । तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवतेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरिया समाणा हद्वतुट्ठा थेरे भगवंते बंदंति नमसंति...."(सू० ११०)
तए णं से भगगं गोयमे रायगिहे नगरे जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइएवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगियाए नगरीए बहिया पुष्पवतीए चेइए पासावचिन्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई पुच्छिया-संजमे एं भंते ! किंफले ? तवे णं भंते ? किंफले ? तए णं ते थेरा भगतो ते समणोवासए एवं वदासी-संजमे णं अज्जो-अणएहयफले तवे बोदाणफले तं चेव जाव पुवतवेणं पुखसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति, सच्चे गं एसमहे णो चेव णं आयभाववत्तव्ययाए ॥ से कहमेयं मरणे एवं ? तए एं समणे० गोयमे इमोसे कहाए लट्ठ समाणे...."
समणं भ० महावीरं जाव एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहिं अभगुण्णाए समाणे रायगिहे नगरे उच्चनीयमझिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजण्सदं निसामेमि एवं खलु देवा० तुंगियाये नगरीए बहिया पुष्पवईए चेइए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इयाई एयारूवाई वागरणाइं पुच्छिया—संजए णं भंते ! किंफले ? तवे किंफले ? तं चेव जाव सच्चेण एसमछे णो चेव णं आयभाववत्तन्वयाए । तं पभू भंते ! ते येरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयालयाई वागरणाई वागरित्तए उदाहु अप्पभू ?
पभू रणं गोयमा ! ते थेरा भगवंतों तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए, अहं पि य णं गोयमा ! एवमाइक्खामि ....
(सू० १११ ) व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २ उद्देश ५। रायगिहे नामं नयरे होत्था ।
(सू०६८) तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई होत्या। से णं लेवे नाम गाहावई समणोवासए यावि होत्था । (सू० ६६)
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जैन धर्म और दर्शन लेवस्स गाहावइस्स नालंदाए बाहिरियार...... उदगसाला......
तस्सिं च णं गिहपदेसंमि भगवं गोयमे विहरइ, भगवं च णं अहे आरामंसि । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावञ्चिज्जे नियंठे मेयजे गोतेणं जेणेव भगवं गोयमे तेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता भगवं गोयम एवं वयासी-आउसंतो ! गोयमा अस्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियब्वे, तं च आउसो ! अहासुर्य बहादरिसुर्य मे वियागरेहि सवायं, भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-अवियाइ अाउसो! सोचा निसम्म जाणिस्सामो सवाय, उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी । (सू०७१)
अाउसो! गोयमा अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुम्हाणं पवयणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसंपन्न एवं पञ्चक्खावेंति - णएणत्य श्रभित्रोएरा गाहावइ, चोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंड, एवं एहं पञ्चक्खंताणं दुपञ्चक्खायं भवइ, एवं एई पञ्चक्खावेमाणाणं दुपञ्चक्खावियव्वं भवइ, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा अतियरति सयं पतिएणं । (सू० ७२) ___एतेसिं | भंते ! पदाणं एपिंह जाणियाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए एयमठं सद्दहामि... ___ तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुभ अंतिए चाउज्जामाओ धम्माश्रो पंचमहव्वइयं रापडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ।। (सू०८१)
श्रुत्रस्कंध २ श्रुस ७ नालंदीयाध्ययन ७। चाउज्जामो अ जो धम्मो जो इमो पंच सिक्खियो। देसिनो बद्धमाणेणं पासेण य महामुणी ! ॥ २३ ॥ एगकज्जपवनाणं विसेसे कि नु कारण । धम्मे दुविहे मेहावी ! कहं चिप्पच्चो न ते १ ॥ २४ ।। तो केसि बुगतं तु गोयमो इणमब्ववी ।। पन्ना समिक्खए धम्म तत्तं तत्तविणिच्छयं ॥ २५ ॥ पुरिमा उजु जड्डा उ वक्कजड्डा य पच्छिमा । मझिमा उज्जुपन्ना उ तेन धम्मे दुहा कए । २६ ।। पुरिमाणं दुबिसुज्झो उ चरिमाणं दुरणुपालश्रो । कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसुझो सुपालश्रो ॥ २७ ॥ साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसश्रो इमो। अन्नोऽवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ २८ ॥
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________________ परिशिष्ट 25 अचेलश्रो अ जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो / देसिओ बद्धमाणेणं: पासेण य महामुणी // 26 // एगकज्जपवन्नाएं, विसेसे कि नु. कारणं ? / लिंगे दुविहे मेहावी ! कहं विप्पच्चो न ते 1 // 30 // केसिं एवं बुवाणं तु, गोयमो इणमब्बवी / विन्नाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छियं // 31 // पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविकप्पणं / जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपोषणं / 32 / / उत्तराध्ययन केशीगौतमीयाध्ययन 23 /