Book Title: Parshwanath ki Virasat
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 8
________________ जैन धर्म और दर्शन ऊपर के थोड़े से उद्धरण इतना समझने के लिए पर्याप्त हैं कि महावीर और उनके शिष्य इन्द्रभूति का कई स्थानों में पावपत्यिकों से मिलन होता है । इन्द्रभूति के अलावा अन्य भी महावीर - शिष्य पार्श्वपत्यिकों से मिलते हैं । मिलाप के समय आपस में चर्चा होती है। चर्चा मुख्य रूप से संयम के जुदे - जुदे अंग के अर्थ के बारे में एवं तत्त्वज्ञान के कुछ मन्तव्यों के बारे में होती है। महावीर जवाब देते समय पार्श्वनाथ के मन्तव्य का आधार भी लेते हैं और पार्श्वनाथ को 'पुरिसादाणीय' अर्थात् 'पुरुषों में श्रदेय' जैसा सम्मानसूचक विशेषण देकर उनके प्रति हार्दिक सम्मान सूचित करते हैं । और पार्श्व के प्रति निष्ठा रखनेवाले उनकी परंपरा के निग्रंथों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं । पावपित्यिक भी महावीर को अपनी परीक्षा में खरे उतरे देखकर उनके संघ में दाखिल होते हैं अर्थात् वे पार्श्वनाथ के परंपरागत संघ और महावीर के नवस्थापित संघ — दोनों के संधान में एक कड़ी बनते हैं। इससे यह मानना पड़ता है कि, महावीर ने जो संघ रचा उसकी भित्ति पार्श्वनाथ की संघ-परंपरा है। यद्यपि कई पापित्यिक महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए, तो भी कुछ पार्श्वपत्यिक ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका महावीर के संघ में सम्मिलित होना निर्दिष्ट नहीं है । इसका एक उदाहरण भगवती २-५ में यों है-तुंगीया नामक नगर में ५०० पावपित्यिक श्रम पधारते हैं । वहाँ के तत्त्वज्ञ श्रमणोपासक उनसे उपदेश सुनते हैं । पाश्र्वपित्यिक स्थविर उनको चार याम आदि का उपदेश करते हैं | श्रावक उपदेश से प्रसन्न होते हैं और धर्म में स्थिर होते हैं । स्थविरों से संयम, तप आदि के विषय में तथा उसके फल के विषय में प्रश्न करते हैं । पार्श्वपत्यिक स्थविरों में से कालियपुत्त, मेहिल, श्रानन्दरस्त्रिय और कासव ये - चार स्थविर अपनी-अपनी दृष्टि से जवाब देते हैं । पाश्र्वपित्यिक स्थविर और पार्श्वपित्यिक श्रमणोपासक के बीच तुंगीया में हुए इस प्रश्नोत्तर का हाल इन्द्रभूति राजगृही में सुनते हैं और फिर महावीर से पूछते हैं कि - "क्या ये पार्श्वपत्यिक स्थविर प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं ?" महावीर स्पष्टतया कहते हैं कि – “वे समर्थ हैं । उन्होंने जो जवाब दिया वह सच है; मैं भी वही जवाब देता ।" इस संवादकथा में ऐसा कोई निर्देश नहीं कि, तुंगीयावाले पावपित्यिक निग्रंथ या श्रमणोपासक महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए । यदि वे प्रविष्ट होते तो इतने बड़े पार्श्वपित्यिक संघ के महावीर के संघ में सम्मिलित होने की बात समकालीन या उत्तरकालीन आचार्य शायद ही भूलते। यहाँ एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि, पाश्र्वापत्यिक श्रमण न तो १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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