Book Title: Parshwanath ki Virasat
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 10
________________ १२ जैन धर्म और दर्शन जैसे पापित्यिक श्राभ्यन्तर चरित्र से संबद्ध पारिभाषिक शब्दों का जत्र अर्थ पूछते हैं तब महावीर के अनुयायी स्थविर वही जवाब देते हैं, जो पार्श्वपत्यिक परंपरा में भी प्रचलित था । निग्रंथों के बाह्याभ्यंतर आचार-चारित्र के पार्श्वपरंपरा से विरासत में मिलने पर भी महावीर ने उसमें जो सुधार किया है वह भी आगमों के विश्वसनीय प्राचीन स्तर में सुरक्षित है । पहले संघ की विरासतवाले वर्णन में हमने सूचित किया ही है कि, जिन-जिन पार्श्वपत्यिक निग्रंथों ने महावीर का नेतृत्व माना उन्होंने सप्रतिक्रमण पाँच महाव्रत स्वीकार किए। पार्श्वनाथ की परंपरा में चार याम थे, इसलिए पर्श्वनाथ का निग्रंथधर्म चातुर्याम कहलाता था । इस बात का समर्थन बौद्ध पिटक दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में आए हुए निग्रंथ के 'चातु-याम-संवर-संवृतो' इस विशेषण से होता है । यद्यपि उस सूत्र में ज्ञातपुत्र महावीर के मुख से चातुर्याम धर्म का वर्णन बौद्ध पिटक - संग्राहकों ने कराया है, पर इस अंश में वे भ्रान्त जान पड़ते हैं। पार्श्वपत्यिक परंपरा बुद्ध के समय में विद्यमान भी थी और उससे बुद्ध का तथा उनके कुछ अनुयायियों का परिचय भी था, इसलिये वे चातुर्याम के बारे में ही जानते थे । चातुर्याम के स्थान में पाँच यम या पाँच महाव्रत का परिवर्तन महावीर ने किया, जो पार्श्वपत्यिकों में से ही एक थे । यह परिवर्तन पार्श्वपत्यिक परंपरा की दृष्टि से भले ही विशेष महत्त्व रखता हो, पर निर्ग्रन्थ भिन्न इतर समकालीन बौद्ध जैसी श्रमण परंपरा के लिए कोई खास ध्यान देने योग्य बात न थी । जो परिवर्तन किसी एक फिरके की श्रान्तरिक वस्तु होती है उसकी जानकारी इतर परम्परात्रों में बहुधा तुरन्त नहीं होती । बुद्ध के सामने समर्थ पार्श्वपत्यिक निग्रंथ ज्ञातपुत्र महावीर ही रहे, इसलिए बौद्ध ग्रंथ में पार्श्वपत्यिक परंपरा का चातुर्याम धर्म महावीर के मुख से कहलाया जाए तो यह स्वाभाविक है । परन्तु इस वर्णन के ऊपर से इतनी बात निर्विवाद साबित होती है कि, पापित्यिक निर्ग्रन्थ पहले चातुर्याम धर्म के अनु यायी थे, और महावीर के संबन्ध से उस परंपरा में पंच यम दाखिल हुए। दूसरा -सुधार महावीर ने सप्रतिक्रमण धर्म दाखिल करके किया है, जो एक निर्ग्रन्थ परम्परा का आन्तरिक सुधार है । सम्भवतः इसीलिए बौद्ध ग्रन्थों में इसका कोई निर्देश नहीं । बौद्ध ग्रन्थों में पूरणकाश्यप के द्वारा कराए गए निर्ग्रन्थ के वर्णन में 'एकशाटक' विशेषण आता है; 'अचेल' विशेषण श्राजीवक के साथ श्राता है । निर्ग्रन्थ का 'एकशाटक' विशेषण मुख्यतया पार्श्वपत्यिक निर्ग्रन्थ की ओर २०. अंगुत्तरनिकाय, छक्कनिपात, २-१ | 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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