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जैन धर्म और दर्शन
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की रचना महावीर के अनुगामी गणधरों ने की । २६ यद्यपि नन्दीसूत्र की पुरानी व्याख्या - चूर्णि - ~ जो विक्रम की आठवीं सदी से अर्वाचीन नहीं— उसमें 'पूर्व' शब्द का अर्थ बतलाते हुए कहा गया है कि, महावीर ने प्रथम उपदेश दिया इसलिए 'पूर्व' कहलाए इसी तरह विक्रम की नवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य वीरसेन ने घवला में 'पूर्वगत' का अर्थ बतलाते हुए कहा कि जो पूर्वो को प्राप्त हो या जो पूर्व स्वरूप प्राप्त हो वह 'पूर्वगत' ; परन्तु चूर्णिकार एवं उत्तरकालीन वीरसेन, हरिभद्र, मलयगिरि आदि व्याख्याकारों का वह कथन केवल 'पूर्व' और 'पूर्वगत' शब्द का अर्थ घटन करने के अभिप्राय से हुआ जान पड़ता है। जब भगवती में कई जगह महावीर के मुख से यह कहलाया गया है कि, अमुक वस्तु पुरुषादानीय पार्श्वनाथ ने वही कही है जिसको मैं भी कहता हूँ, और जब हम सारे श्वेतांबर - दिगंबर श्रुत के द्वारा यह भी देखते हैं कि, महावीर का तत्त्वज्ञान वहीं है जो पाश्र्वपित्यिक परम्परा से चला आता है, तब हमें 'पूर्व' शब्द का अर्थ समझने में कोई दिक्कत नहीं होती । पूर्व श्रुत का श्रर्थ स्पष्टतः यही है कि, जो श्रुत महावीर के पूर्व से पार्श्वपत्यिक परम्परा द्वारा चला आता था, और जो किसी न किसी रूप में महावीर को भी प्रास हुआ। प्रो० याकोबी आदि का भी ऐसा ही मत है । ३२ जैन श्रुत के मुख्य विषय नवतत्त्व, पंच अस्तिकाय श्रात्मा और कर्म का 'उनकी निवृत्ति के उपाय, कर्म का स्वरूप इत्यादि हैं । इन्हीं विषयों को महावीर और उनके शिष्यों ने संक्षेप से विस्तार और विस्तार से संक्षेप कर भले ही कहा हो, पर वे सब विषय पार्श्वपत्यिक परम्परा के पूर्ववर्ती श्रुत में किसी-न-किसी रूप
संबन्ध, उसके कारण,
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२६-३०. जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराणं सव्वसुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगतसुत्तत्थं भासति तम्हा पुव्वं ति भणिता, गणधरा पुरा सुत्तरवणं करेन्ता श्रायाराइकमेण रति ठवेंति य ।
- नन्दीसूत्र ( विजयदानसूरि संशोधित) चूर्ण, पृ० १११ अ ।
३१. पुव्वाणं गयं पत्त- पुव्वसरूवं वा पुव्वगयमिदि गणणामं ।
-- षट्खंडागम ( धवला टीका ), पुस्तक १, पृ० ११४ The name ( पूर्व ) itself testifies to the fact that the Purvas were superseded by a new canon, for Purva means former, earlier......
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-Sacred Books of the East, Vol XXII Introduction, P. XLIV
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