Book Title: Parshwanath ki Virasat
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 7
________________ भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत इच्छा प्रकट करता है और वह अन्त में सप्रतिक्रमण पंच महाव्रत स्वीकार करके महावीर के संघ का अंग बनता है। सूत्रकृतांग के नालंदीया अध्ययन (२-७-७१, ७२, ८१) में पापित्यिक उदक पेढाल का वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि, नालंदा के एक श्रावक लेप की उदकशाला में जब गौतम थे तब उनके पास वह पावापत्यिक आया और उसने गौतम से कई प्रश्न पूछे। एक प्रश्न यह था कि, तुम्हारे कुमार-पुत्र आदि निग्रंथ जन गृहस्थों को स्थूल व्रत स्वीकार कराते हैं तो यह क्या सिद्ध नहीं होता कि निषिद्ध हिंसा के सिवाय अन्य हिंसक प्रवृत्तियों में स्थल व्रत देनेवाले निग्रंथों की अनुमति है ? अमुक हिंसा न करो, ऐसी प्रतिज्ञा कराने से यह अपने आप फलित होता है कि, बाकी की हिंसा में हम अनुमत हैं-इत्यादि प्रश्नों का जवाब गौतम ने विस्तार से दिया है। जब उदक पदाल को प्रतीति हुई कि गौतम का उत्तर सयुक्तिक है तब उसने चतुर्यामधर्म से पंचमहाव्रत स्वीकारने की इच्छा प्रकट की । फिर गौतम उसको अपने नायक ज्ञातपुत्र महावीर के पास ले जाते हैं। वहीं उदक पेढाल पंचमहाव्रत सप्रतिक्रमणधर्म को अंगीकार करके महावीर के संघ में सम्मिलित होता है। गौतम और उदक पेढाल के बीच हुई विस्तृत चर्चा .मनोरंजक है। उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन में पापित्यिक निग्रंथ केशी और महावीर के मुख्य शिष्य इन्द्रभूति--दोनों के श्रावस्ती में मिलने की और आचार-विचार के कुछ मुद्दों पर संवाद होने की बात कही गई है। केशी पाश्र्वापत्यिक प्रभावशाली निग्रंथ रूप से निर्दिष्ट हैं; इन्द्रभूति तो महावीर के प्रधान और साक्षात् शिष्य ही हैं। उनके बीच की चर्चा के विषय कई हैं, पर यहाँ प्रस्तुत दो हैं । केशी गौतम से पूछते हैं कि, पार्श्वनाथ ने चार याम का उपदेश दिया, जब कि वर्धमान-महावीर ने पाँच याम--महाव्रत का, सो क्यों ? इसी तरह पार्श्वनाथ ने सचेल-सवस्त्र धर्म बतलाया, जब कि महावीर ने अचेल—अवसन धर्म, सो क्यों ? इसके जवाब में इन्द्रभूति ने कहा कि, १७ तत्त्वदृष्टि से चार याम और पाँच महाव्रत में कोई अन्तर नहीं है, केवल वर्तमान युग की कम और उलटी समझ देखकर ही महावीर ने विशेष शुद्धि की दृष्टि से चार के स्थान में पाँच महाव्रत का उपदेश किया है । और मोक्ष का वास्तविक कारण तो अान्तर ज्ञान, दर्शन और शुद्ध चारित्र ही है, वस्त्र का होना, न होना, यह तो लोकदृष्टि है । इन्द्रभूति के मूलगामी जवाब की यथार्थता देखकर केशी पंचमहाव्रत स्वीकार करते हैं; और इस तरह महावीर के संघ के एक अंग बनते हैं। १७. उत्तराध्ययन, अ० २३, श्लोक २३-३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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