________________ Pancastikaya-samgraha जिनेन्द्रदेव का भक्त सम्यग्दृष्टि पुरुष अपरिमित प्रतिष्ठा अथवा ज्ञान से सहित इन्द्रसमूह की महिमा को, मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तकों से पूजनीय चक्रवर्ती के चक्ररत्न को और समस्त लोक को नीचा करने वाले तीर्थंकर के धर्मचक्र को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होता है। The worthy (bhavya) devotee of Lord Jina attains the supreme glory and knowledge appertaining to the lord of the devas, the divine 'cakraratna' of the king-of-kings (cakravarti) in front of whom the crowned kings must bow down, the divine wheel of dharma (dharmacakra) of the Tirthankara, and finally, liberation (moksa). जो अर्हतादि की भक्ति में लीन है वह उसी भव से मोक्ष को नहीं पाता है - Devotion to the Arhat, etc., does not lead to liberation in the same birth अरहंतसिद्धचेदियपवयणभत्तो परेण णियमेण / जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि // 171 // अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः परेण नियमेन / यः करोति तपःकर्म स सुरलोकं समादत्ते // 171 // अन्वयार्थ - [यः] जो (जीव) [ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनभक्तः] अर्हत, सिद्ध, चैत्य (अहँतादि की प्रतिमा) और प्रवचन (शास्त्र) के प्रति भक्तियुक्त वर्तता हुआ, [ परेण नियमेन ] परम संयम सहित [ तपःकर्म ] तपकर्म / (तपरूप कार्य) [करोति ] करता है, [सः] वह [सुरलोकं] देवलोक को [समादत्ते ] सम्प्राप्त करता है। . . . . . . . . 324