Book Title: Nyaya Dipika
Author(s): Dharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ प्रकाशकीय वक्तव्य (प्रथम संस्करण) आजसे कोई ४६ वर्ष पहले सन् १८६६ में 'न्यायदीपिका का मूलरूपमें प्रथम प्रकाशन पं0 कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवे (कोल्हापुर) के द्वारा हुआ था । उसी वक्त इस सुन्दर ग्रंथका मुझे प्रथम-परिचय मिला था और इसके सहारे ही मैंने न्यायशास्त्र में प्रवेश किया था। इसके बाद 'परीक्षामुख' आदि बीसियों न्यायग्रंथोंको पढ़ने-देखनेका अवसर मिला और वे बड़े ही महत्वके भी मालूम हुए, परन्तु सरलता और सहजबोध गम्यताकी दृष्टिसे हृदयमें 'न्यायदीपिका' को प्रथम स्थान प्राप्त रहा और यह जान पड़ा कि न्यायशास्त्रका अभ्यास प्रारम्भ करनेवाले जैनोंके लिये यह प्रथम-पठनीय और अच्छे कामकी चीज है। और इसलिये ग्रंथकारमहोदयने ग्रंथकी आदिमें 'बाल-प्रबुद्धये' पदके द्वारा ग्रंथका जो लक्ष्य 'बालकोंको न्यायशास्त्रमें प्रवीण करना' व्यक्त किया है वह यथार्थ है और उसे पूरा करनेमें वे सफल हुए हैं । न्याय वास्तवमें एक विद्या है, विज्ञान है – साइंस है—अथवा यों कहिये कि एक कसौटी है जिससे वस्तु-तत्त्वको जाना जाता है, परखा जाता है और खरे-खोटेके मिश्रण को पहचाना जाता है। विद्या यदि दूषित होजाय, विज्ञान में भ्रम छा जाय और कसौटी पर मैल चढ़ जाय तो जिस प्रकार ये चीजें अपना ठीक काम नहीं दे सकतीं उसी प्रकार न्याय भी दूषित भ्रम-पूर्ण तथा मलिन होने पर वस्तुतत्त्वके यथार्थनिर्णय में सहायक नहीं हो सकता । श्रीप्रकलङ्कदेवसे पहले अन्धकार (अज्ञान) के माहात्म्य और कलियुगके प्रतापसे कुछ ऐसे तार्किक विद्वानों द्वारा जो प्रायः गुण-द्वेषी थे, न्यायशास्त्र बहुत कुछ मलिन किया जा चुका था, अकलङ्कदेवने सम्यग्-ज्ञानरूप-वचन जलोंसे (न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थों द्वारा) जैसे तैसे धो-धाकर उसे निर्मल किया था; जैसाकि न्यायविनिश्चय के निम्न वाक्यसे प्रकट है

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 390