Book Title: Niti Vakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 3
________________ पृष्ठ संख्या विषय 23. कृपण के धन की आलोचना 24. नैतिकाचार का निरूपण 25. पुन: नैतिकाचारी के सत्कर्तव्य निरूपण 25. सच्चे लोभी की प्रशंसा 27. भिक्षुक को भिक्षा में विघ्न क्यों 28. दरिद्र की स्थिति 29. याचक का दोष निरूपण 30. तप का स्वरूप 31. नियम का स्वरूप 32. शास्त्र का महात्म्य 33. सत्यार्थ आगम शास्त्र का निर्णय 34. चंचल चित्तवालों का विवरण 35. ज्ञानवान होकर भी शुभकार्य न करे-वर्णन 36. परोपदेशियों की सुलभत्ता 37. तप और दान से प्राप्त फल 38, सञ्चय से होने वाले लाभ का वर्णन 39. धर्म, विद्या और धन की प्रतिदिन वृद्धि करने का लाभ 40. एक काल में पुण्य समूह का सञ्चय दुर्भल है । 41. आलसी के मनोरथ विफल होते हैं। 42. धर्मफल भोगता हुआ भी पाप में प्रवृत्त का वर्णन 43. विवेकी पुरुष स्वयं धर्मानुष्ठान में प्रवृत्ति करे 44. धर्मानुष्ठान काल में होने वाली प्रवृत्ति 45. पाप में प्रवृत्त पुरुष का स्वरूप 46. पाप का निषेध करते हैं 47. पूर्त-स्वार्थवश धनाढ्यों को पापमार्ग में लगाते हैं 48. दुष्ट संसर्ग का फल 49. दुष्टों का स्वरूप 50. परस्त्री सेवन का फल 51, धर्म के उल्लंघन का फल 52. पापी की हानी 53. धर्म पुरुषार्थ साधक का कथन 54. बुद्धिमान का कर्तव्य 55, अन्याय से सुख लेश, हानि अधिक 56, पूर्वकृत धर्माधर्म का अकाट्य युक्तियों से समर्थन 57. धर्माधिक भाग्यशाली का महात्म्य

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