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तब लाभालाभका कारण आप विचारी ।
द्रव्य क्षेत्रके ज्ञाता आप विचक्षण भारी ॥ श्री ज्ञान ० ॥ १४ ॥
यांचे है श्रागमसार आनन्द अति आवे |
संघ चतुर्विध का सुन कर मन ललचावे । अठ्ठाई महोत्सव पूजा खूब भणीजे ।
श्री चिंतामणि प्रभु पास शान्ति सुख दीजे ।
अंग्रेजी बाजे साथ प्रभु असवारी ॥ श्री ज्ञान० ।। १५ ।।
जैसलमेर के संघमें विघ्न करता ।
जब लग उनके घर में कहना चलता ।
करी विनती भये मुनि अनुरागी ।
लगा खूब उपदेश विघ्न गये भागी ।
संघका बनिया ठाठ अतिशय धारी ॥ श्री ज्ञान० || १६ ॥
श्री चिंतामणि पास लोदरवे पाया ।
संघ यात्रा कर आनन्द खूब मनाया ।
पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्य कीना ।
धन्य धन्य संघ पत्नि लाभ बहुतसा लीना !
नगर प्रवेशके महोत्सवकी बलिहारी ॥ श्री ज्ञान० ॥ १७॥
नरनारी मिल हैं अर्जी आन गुजारी ।
शरीर कारणसे विनती आप स्वीकारी | साल गुणियासी चौमासो दियो ठाई ।
व्याख्यानमें बांचे सूत्र भगवती माई |
याँ बढ़ता रहा उत्साह धर्म हितकारी ॥ श्री ज्ञान० ॥१८॥
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