Book Title: Mokshmarg Ek Adhyayan
Author(s): Rajesh Jain
Publisher: Rajesh Jain

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Page 15
________________ उत्तम संयम:- संयमी पुरुष अपनी इन्दियों को उनके विषयो से रोकता हैं। ऐसी अवस्था में उसे कोई पदार्थ इष्ट व अनिष्ट प्रतीत नही होते है तब वह समभाव होता हैं और आनंद को प्राप्त करता है। उत्तम तप:- तपस्वी पुरुष इन्दियों को वश करता हुआ मन को भी पूर्ण रूप से वश करता है। मन को चंचल होने से रोकता है किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न नही होने देता है। इच्छा न रहने के कारण आकुलता नही होती है। अपने उपर आने वाले सब प्रकार के उपसर्गो को धीरता पूर्वक सहन करने मे समर्थ होता है। ऐसे पुरुष को धर्मध्यान व शुक्लध्यान होता है जिससे वह अनादि से लगे हुये कठिन कर्मो को अल्प समय मे नाश करके सच्चे सुखों का अनुभव करता है। उत्तम त्याग:- त्यागी पुरुष के उक्त सातों गुण तो होते ही है तथा उस पुरुष की आत्मा बहुत उदार हो जाती है। वह अपनी आत्मा से राग द्वेष भावों को दूर करके चार संघो को आहार आदि चारों प्रकार के दान देता है और दान देकर अपने को घन्य व स्व सम्पति को सफल हुई समझता हैं। उस व्यक्ति का मन धन आदि में फंसकर आर्त और रौद्र कभी नही होता है। ऐसा पुरुष सदा प्रसन्नचित रहता है और उसकी आत्मा सदगति को प्राप्त होती है। उत्तम आकिंचन:- समस्त प्रकार के परिग्रहों से ममत्व भावों को छोङ देने वाला पुरुष सदैव निभर्य रहता है, उसे कुछ भी खोने का डर नही होता है तथा अपने शरीर तक से निस्पृह रहता है तब ऐसे महापुरुष को कोईपदार्थ आकुलित नही कर सकता है। ऐसा पुरुष आत्मा के सिवाय समस्त पदार्थ को त्याज्य समझता है उसे कुछभी ममत्व शेष नही रहता है और समय-समय असंख्यात व अनन्तगुणी कर्मो की निर्जरा होती रहती है। उत्तम ब्रह्मर्चय:- ब्रह्मर्चयधारी महाबलवान पुरुष सदैव अपनी आत्मा मे ही रमण करता है। उसकी दृष्टि मे सब जीव संसार मे एक समान प्रतीत होते है तथा स्त्री पुरुष व नपुंसक आदि का भेद कर्म की उपाधि जानता है। यह शरीर हाङ, मांस, मल, मूत्र आदि रागी जीवों को सुहावना लगता है। यदि चाम की चादर हटा दी जाय अथवा बुढापा आ जाय तो फिर इसकी ओर देखने को भी जी न चाहे ऐसा सोचकर घृणित शरीर मे क्रीडा करना छोड देता है। ऐसे महापुरुष का आदर सब जगह होता है। अखण्ड ब्रह्मर्चयधारी संसार के समस्त कार्य करने में सक्षम होता है। "जाप' ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मर्चय, दश- लक्षण धर्माय नमः

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