Book Title: Mokshmarg Ek Adhyayan
Author(s): Rajesh Jain
Publisher: Rajesh Jain

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Page 31
________________ साध समाधि: - साधु वर्गों पर आये हुए उपसर्गों को यथा सम्भव दूर करना साधु समाधि नाम की भावना हैं। वैयावृत्यकरणः- साधु समूह तथा अन्य साधर्मीजनों के शरीर में किसी प्रकार की रोगादिक आ जाने पर उनके दुख दूर करने के लिए उनकी सेवा तथा उपचार करने को वैयावृत्यकरण भावना कहते हैं। अर्हद भक्ति भावना: - अरहंत भगवान के गुणों में अनुराग करना, उनकी भक्ति पूर्वक पूजन, स्तवन तथा ध्यान करना अर्हद भक्ति भावना हैं। आचार्य भक्ति भावना: - आचार्य महाराज के गुणों की सराहना करना व उनमें अनुराग करना आचार्य भक्ति नाम की भावना हैं। बहथत भक्ति भावना: - उपाध्याय महाराज की भक्ति तथा उनके गुणों में अनुराग करना बहुश्रुत भक्ति भावना हैं। प्रवचन भक्ति भावना: - अरहंत भगवान के मुख कमल से प्रगटित मिथ्यात्व के नाश करने तथा जीवों के हितकारी वस्तु स्वरूप को बताने वाला श्री जैन शास्त्रों का पठन पाठनादि अभ्यास करना प्रवचन भक्ति नाम की भावना हैं। आवश्यका परिहाणि: - आश्रव के द्वार रोकने तथा संवर को प्राप्त करने के लिए सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, स्तवन, वन्दना, एंव कार्योत्सर्ग इन छः आवश्यक कार्यों को करना परम संवर का कारण आवश्यका परिहाणि नाम की भावना हैं। सामायिकः- मन, वचन, काय से समस्त कार्यों को रोककर मन को एकाग्र करके आत्मा में स्थिर करना सामायिक हैं। प्रतिक्रमणः- अपने किये हुए दोषों को स्मरण करके उन पर पश्चाताप करना प्रतिक्रमण हैं। प्रत्याख्यान:- दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान हैं। स्तवनः- पंच परमेष्ठियों तथा चौबीस तीर्थंकरों के गुण कीर्तन करना स्तवन हैं।

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