Book Title: Mokshmarg Ek Adhyayan
Author(s): Rajesh Jain
Publisher: Rajesh Jain

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Page 30
________________ गुणव्रत:- तीन दिग्व्रत । अनर्थदण्डव्रत भोगोपभोग शिक्षाव्रत:- चार देशावकाशिक । सामायिक | प्रोषधोपवास । वैयावृत्य पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत का पालन करे तथा व्रतों के दोषों को भी बचाऐं। इन व्रतों के निद्रोष पालन करने से कभी राज्य दंड और पंच दंड नही होता हैं। ऐसा व्रती पुरूष अपने सदाचार से सबका आदर्श बन जाता हैं। यही शीलव्रतोंप्वनतिचार भावना हैं। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग: - संसारी जीव सदैव अपने लिये सुख प्राप्ति की इच्छा से विपरीत ही मार्ग ग्रहण कर लेता है, जिससे सुख मिलना तो दूर रहा, किन्तु उल्टा दुख का सामना करना पडता हैं। इसलिये निरन्तर ज्ञान सम्पादन करना परमावशक हैं। क्योंकि जहाँ चर्म चक्षु काम नही दे सकते है वहा ज्ञान चक्षु ही काम देते हैं। ज्ञानी पुरूष नेत्रहीन होने पर भी अज्ञानी आँख वालों से अच्छा हैं। अज्ञानी न तो लौकिक ही कुछ साधन कर सकते हैं। वे ठौर- ठौर ठगाये जाते है और अपमानित होते हैं इसलिए आलस्य छोड कर ज्ञान उपार्जन करना आवश्यक है, ऐसा विचार करके निरन्तर विधाभ्यास करना व कराना, सो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग नाम की भावना संवेग: - उत्तम पुरूष अपनी इन्द्रियों को विषयों से रोक कर मन को धर्मध्यान में लगा देते हैं। इसी को संवेग भावना कहते हैं। शक्तितस्त्याग: - आहार, औषध, शास्त्र, एवं अभय इस प्रकार के चार दानों को मुनि, आर्यिका, श्रावक, एवं श्राविकाओं में भक्ति से तथा दीन, दुखी, नर, पशुओं को करूणाभावों से देता है उसे दान या शक्तितस्त्याग नाम की भावना कहते हैं। शक्तितस्तप: - व्रत, रसत्याग आदि छः बाह्य और वैयावृत्य, स्वाध्याय आदि छः अभ्यन्तर इस प्रकार बारह तपों मे प्रवत्ति करना शक्तितस्तप नाम की भावना कहलाती हैं।

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