Book Title: Mokshmarg Ek Adhyayan
Author(s): Rajesh Jain
Publisher: Rajesh Jain

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Page 33
________________ __ “समाधिमरण” समाधिमरण धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है उसे समाधिमरण कहते हैं। तप का फल अंत समय मे समाधिमरण को ही कहते हैं। राग, द्वेष, मोह और परिग्रह को छोडकर शुद्ध मन से समाधिमरण की इच्छा से प्रिय वचनो द्वारा अपने परिवार एंव अन्य लोगों से क्षमा मांगना एंव स्वयं भी सभी की गलतियों को माफ कर देना चाहिये।समाधिमरण के समय पाँच महाव्रत धारण कर मुनि बन जाना चाहिए। अन्नादि भोजन को छोडकर दूध आदि पेय पदार्थ को लेना चाहिये। पुनः दूध आदि छोडकर छाछ या गरम जल पीना चाहिये। पुनः छाछ एंव गरम जल को भी छोडकर यथा शक्ति उपवास करना चाहिए और सम्पूर्ण प्रयत्न से महामंत्र का जाप करते हुए शरीर का त्याग कर देना चाहिये। क्रम से त्याग करने से आकुलता नही होती हैं। जो भव्य जीव अणुव्रत से लेकर समाधिमरण तक व्रतों को पालते हैं वे निर्वाण के अधिकारी होते हैं एवं तीन लोक के गुरू बन जाते हैं। वे अनंत चतुष्टय (अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत सुख) को प्राप्त कर लेते हैं। जिन्होंने मोक्ष पद प्राप्त कर लिया हैं, सैंकडों कल्प काल के बीत जाने पर भी उनमें किंचित भी अंतर नही पडता हैं और न ही वे पुनः वापस इस संसार मे ही आते हैं। सम्बन्धित विषय को विस्तार से पढने के लिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार का पेज नम्बर 62-68 देखें।

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