Book Title: Mallinath no Ras
Author(s): Diptipragnashreeji
Publisher: ZZ_Anusandhan
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डिसेम्बर २००९
करो दूगंछा का तम्यो राय ए तो छइ सोवन प्रतिमाय ।
अमृत आहार करूं हुं जदा एक कवल देउं प्रतिमा तदा ॥ २५ ॥ (२६)॥ तेणि गंधिं तुम पाछा खसो चरम शरिरिं किम ओहोलसो । शरीरबंध हुउं सातइ धाति सुणो सोय नर ऊत्म जाति ॥२६।(२७)॥ रस लोही माटी निं मेद असथी मंजा शक्रसु भेद ।
एणइ सातिं बंधाई देह ऊत्म त्याहा क्यम धरइ सनेह ||२७| (२८)॥ चरम - कोथली माहिं हाड नरनिं दूरगतिं पडवा खाड ।
नथी पूरषनो वाक लगार मोहिं कीधा जाण गुमार ||२८| (२९) | जेनिं मोह ल्यख्यमीनो घणो छलिं करी द्रव्य लइ परतणो । जेनिं मोह घणो नीजकाय ते परजीव हणीनिं खाय ॥ २९ ॥ (३०)॥ जेहनिं मोहो नारि उंपरि लया अलगी मुकइ धरिं ।
करी जाचना बल करी वरइ जोगी थई स्त्री पुंठि फरइ ||३०| (३१)॥ जाणइ सारम्हा सार छइ एह पणि ए सबल दूध देह । ऊपरि सुदर, माहिं असार जशो चीत ठंडील ठार ||३१| (३२) |
॥ दूहा ॥
अभ्यंतर वीष सम जाणीइ बाहइरि अमृत उदार ।
गुजा - फल सम जाणवा स्त्रीना भाव वीकार ||३२| ( ३३ ) || मीडानी परी वाटली राखडी राखी म जोय । नारी शिरि दीवो धरइ दूरगति पडवा तोय ||३३| (३४) ॥
१२३
गाथा ॥
जलकी भीति पवनका थंभा देवल देखी हुआ अशंभा । बाहइरि भीतर गंध दुगंधा तो कां भुलो मुरिख अंधा ||३४| (३४) ॥
॥ दूहा ॥
कामभोग वीषशल समा वंछिं सुखनी हाणि ।
मल्ली कहइ नर सेवता लहीइ दुरगति खाणि ॥३५॥ (३६) | ईसिं आगममाहा कहयुं ते अदीका संसारि ।
छता भोग छाडी करी नीज मन आणइ ठारि ॥३६।(३७)|

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